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________________ अकम्मणो गई पुब्बपओगेण अलाउप्पभिइनायओ। निअमो अओ चेव अफुसमानगईए गमणी उक्करिसविसेसओ इओ अबुच्छेओ भव्वाण अणंतभावेण। एअमणंताणतयं समया इत्थ नायं। __ भव्वत्तं जोग्गयामित्तमेव केसिंचि पडिमजुग्गदारुनिदसणेणी ववहारमयमेओ एसोऽवि तत्तंगं पवित्तिविसोहणेण अणेगंतसिद्धीओ निच्छयंगभावेण परिसुद्धो उ केवल ऐसा आणा इह भगवओ समंतभद्दा तिकोडिपरिसुद्धीए अपुणबंधगाइगम्मा॥९॥ अर्थ : सिद्धों का सुख अविनाशी ही है। और उसमें सर्वथा अनुत्सुकता है। अतएव (यानि अनन्तता और अनुत्सुकता के कारण) वह सर्वोत्तम है। सिद्ध के जीव लोक के अन्त में, सिद्धिक्षेत्र में स्थित रहते हैं। जहां एक सिद्ध है वहां नियम से अनन्त सिद्ध रहते हैं। ___कर्म रहित जीव की गति पूर्व प्रयोग वश तथा स्वभाव से तूंबे आदि के दृष्टान्तानुसार जानना चाहिए। अर्थात् जैसे मिट्टी के लेप से रहित हुआ जलतलवर्ती तूंबा जल के ऊपरी भाग तक पहुंच जाता है, उसी प्रकार कर्मलेप से रहित हुआ जीव स्वभाव से लोक के ऊपरी भाग तक गमन करता है। सिद्ध जीव अस्पृशद् गति अर्थात् किसी को स्पर्श न करती हुई गति से लोकान्त तक जाते हैं। .. भव्य जीव अनन्त हैं, अतएव (उनमें से अनन्त काल तक भव्यों को मोक्ष जाने और पुनः न लौटने पर भी) उनका सम्पूर्ण उच्छेद नहीं होता है अर्थात् संसार कभी भव्य जीवों से रिक्त नहीं होता है। क्योंकि उनकी अनन्त संख्या दृष्टान्तभूत काल समयों की 'युक्त अनन्त' संख्या रूप नहीं किन्तु अनन्तानन्त संख्या रूप है जो कि समय की अनन्तता से भी कई गुण अधिक है। सिर्फ समय का भी दृष्टान्त ऐसा है कि समय निरन्तर व्यतीत होते रहते हैं और बीते समय लौटकर नहीं आते, फिर भी समय का कदापि अन्त आने वाला नहीं, तब भव्य जीवों का तो अन्त कैसे आ सके? समस्त भव्य जीवों का कभी मोक्ष नहीं होता है इससे सिद्ध है कि, प्रतिमा के योग्य काष्ठ के दृष्टान्त से,कितनेक भव्य जीव जो कभी मोक्ष नहीं पायेंगे, उनका भव्यत्व सिद्धगमन-योग्यता मात्र स्वरूप ही होता है। फिर भी वे बिल्कुल योग्यता से रहित अभव्य जीवों की अपेक्षा विलक्षण है; जैसे की गांठ आदि से युक्त काष्ठ जो कि प्रतिमा बनने के लिए अयोग्य है, उसकी अपेक्षा योग्य काष्ठविलक्षण होता है। भव्य होने पर भी उन्हें कभी मोक्ष सामग्री न मिलने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती है; जैसे किसी किसी काष्ठ में प्रतिमा बनने की योग्यता होने पर भी निमित्त न मिलने से उसकी प्रतिमा नहीं बनती। ____ऐसी योग्यता का विचार यह व्यवहारनय का मत है; फिर भी व्यवहारनय भी श्रामण्य नवनीत ३७
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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