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________________ वही शिष्य सच्चा शिष्य है, जो गुरुजनों के इंगित आकार (मनोभाव) को ज्ञातकर सदा कार्य में प्रवृत्त होता है। शेष वचनानुसार वर्तक तो नोकर है।।६।। जस्स गुरुम्मि न भत्ति, निवसई हिययंमि वजरेहब्ब। किं तस्स जीविएणं? विडंबणामेत्तरुवेणं ॥७॥ हृदय में वज्ररेखा सम जिन की गुरु प्रति भक्ति नहीं होती, उनका विडंबणा मात्ररूप जीवन से क्या? ।।७।। पच्चक्खमह परोक्वं, अवन्नवायं गुरुण जो कुज्जा। जम्मतरे वि दुल्लहं, जिणिंद वयणं पुणो तस्स ॥८॥ जो आत्माएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष गुरु का अवर्णवाद करते है, उनको जन्मांतर में भी जिन वचन की प्राप्ति दुर्लभ है।।८।। जा काओ रिद्धीओ हवंति सीसाण एत्थ संसारे । गुरुभत्ति पायवाओ, पुप्फसमाओ फुडं ताओ ॥९॥ इस संसार में शिष्यों की जो कुछ भी रिद्धी-सिद्धि है वह स्पष्ट रूप से गुरुभक्ति रूपी वृक्ष के पुष्पसम है।।९।। जलपाणदायगस्सवि-उवयारो तीरए काउं । किं पुण भवन्नवाओ, जो तारइ तस्स सुहगुरुणो ॥१०॥ जलदान देनेवाले के उपकार का बदला चुकाना मुश्किल है तो फिर भवरूपी समुद्र से जो तारते हैं उन सद्गुरु के उपकार का बदला कैसे चुकाया जा सके?।।१०।।१ गुरुपायरंजणत्थं, जो सीसो भणइ वयणमेत्तेणं । मह जीवीयंपि एयं, जं भत्ति तुम्ह पयमूले ॥११॥ एयं कहं कहतो, न सरइ मूढो इममि दिद्रुतं । साहेइ अंगणं चिय, घरस्य अभिंतरं लच्छिं ॥१२॥ गुरु चरण रंजन करने के लिए शिष्य वचन मात्र से (हृदय से नहीं) कहता है कि तुम्हारे चरण कमल की भक्ति ही मेरा जीवन है। ऐसी बात करने वाले मूढ (मूर्ख) को इस दृष्टांत का खयाल नहीं है कि घर का अंगन घर की लक्ष्मी को कहता है। (अंगन पर से जैसे घर की लक्ष्मी दिखायी देती है, वैसे तेरे वचन के प्रलाप से तेरे हृदय में भक्ति है या नहीं वह दिखायी देता है।) ।।११-१२।। एसाच्चिय परमकला, एसो धम्मो इमं परं तत्तं । गुरुमाणसमणुकलं, जं किज्जइ सीसवग्गेणं ॥१३॥ शिष्यवर्ग के द्वारा गुरु के मनोनुकूल जो किया जाता है वही सर्वश्रेष्ठ कला है, वही धर्म है, वही परम तत्त्व है।।१३।। ४० श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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