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गुणस्थानक्रमारोह.
प्रकारका गन्ध, नीच गोत्र, अनादेय नाम, दुभंग नाम, अगुरुलघु नाम, उपघात नाम, पराघात नाम, निर्माण नाम, अपर्याप्त नाम, उच्छ्वास, अपयशनाम, अप्रशस्तविहायो गति तथा प्रशस्तविहायो गति, शुभ नाम तथा अशुभ नाम, अस्थैर्य नाम, स्थैर्य नाम, देव गति, देवानुपूर्वी, प्रत्येक नाम, सुस्वर नाम, दुःखर नाम, तथा एक प्रकृति वेदनीय कर्मकी, इस क्रमसे मुक्तिपुरीके मार्गमें विघ्न भूत इन बहत्तर कर्म प्रकृतियोंको केवली भगवान अयोगि नामक चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें एकदम शीघ्रतासे सम कालमें ही नष्ट करता है-सत्तामसे क्षय करता है ॥.
अब अन्तिम समयमें किन प्रकृतियोंको क्षय करके क्या करता है सो कहते हैं
अन्ये ोकतरं वेद्य-मादेयत्वं च पूर्णता । त्रसत्वं बादरत्वं हि, मनुष्यायुश्च सद्यशः ॥११७॥ नृगतिश्चानुपूर्वी च, सौभाग्यं चोच्चगोत्रताम् । पञ्चाक्षत्वं तथा तीर्थकृन्नामेति त्रयोदशः ॥११८॥ क्षयं नीत्वा स लोकान्तं, तत्रैव समये व्रजेत् । लब्धसिद्धत्वपर्यायः, परमेष्ठी सनातनः॥१९॥
त्रिभिर्विशेषकम् ॥ श्लोकार्थ-एक वेदनीय, आदेय नाम, पूर्णता, त्रसत्व, बादरत्व, मनुष्यायु, सद्यशः, मनुष्य गति तथा अनुपूर्वी, सौभाग्य नाम, उच्च गोत्र, पंचेन्द्रियत्व, तथा तीर्थंकर नाम, इन तेरह कर्म प्रकृतियोंको क्षय करके उसी समयमें सिद्धत्व पर्यायको प्राप्त करके वह सनातन परमेष्ठी भगवान लोकान्त पदको प्राप्त करता है।