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________________ ( १७५) चौदहवाँ गुणस्थान. तथागुरुलघुत्वाख्यमुपघातोन्यघातिता । निर्माणमपर्याप्तित्वमुच्छ्वासश्चायशस्तथा ॥ ११४ ॥ विहायोगतियुग्मं च शुभास्थैर्यदयं पृथक् । गतिदिव्यानुपूर्वी च प्रत्येकं च स्वरद्वयम् ॥ ११५ ॥ वेद्यमेकतरं चैति, कर्मप्रकृतयः खलु । द्वासप्ततिरिमा मुक्ति पुरी - द्वारा लोपमाः ||११६ || 1 श्लोकार्थ - देह, बन्धन, संघातन प्रत्येक पाँच पाँच और तीन अंगोपांग, छः संस्थान, पाँच वर्ण, पाँच रस, छः संहनन, आठ स्पर्श, दो गन्ध, नीच, अनादेय, दुभंग, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, निर्माण, अपर्याप्त, उच्छ्वास, अपयश, विहायोगति युग्म, शुभ, अशुभ, अस्थैर्य, स्थैर्य, देवगति, देवानुपूर्वी, प्रत्येक, स्वर द्वय और एक वेदनीय, ये बहत्तर कर्म प्रकृतियाँ निश्चयसे मुक्तिपुरीके द्वारमें अर्गला के समान होती हैं || व्याख्या - जिन बहत्तर कर्म प्रकृतियोंको अयोगी महात्मा अयोगि गुणस्थानके उपान्त्य समयमें सम कालमें क्षय करता है उनके नाम बताते हैं । प्रथम तो औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर और कार्मण शरीर, इन पाँच शरीरोंका क्षय करता है, फिर इन पूर्वोक्त पाँच शरीरोंके बन्धनोंको नष्ट करता है। इसके बाद पाँचों ही संघातनोंको क्षय करता है । फिर औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीन शरीरके अंगोपांग नष्ट करता है, क्योंकि तैजस और कार्मण शरीरको अंगोपांग नहीं होते । इसके बाद छ: संस्थान, पाँच वर्ण, पाँच रस, वज्रऋषभनाराचादि छः संहनन, आठ स्पर्श, सुरभि और दुरभि, यह दो
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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