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________________ चौदहवाँ गुणस्थान. (१७३ ) वपुषोत्रातिसूक्ष्मत्वाच्छीघ्रं भाविक्षयत्वतः । कायकार्यासमर्थत्वात् , सति कायेप्ययोगता ॥१०८॥ तच्छरीराश्रयाद्ध्यानमस्तीति न विरुध्यते । निजशुद्धात्मचिद्रूप-निर्जरानन्दशालिनः ॥ १०९ ।। युग्मम् ॥ - श्लोकार्थ-शरीरकी अति सूक्ष्मताके कारण शीघ्र ही भावि क्षय होनेसे तथा काययोगकी असमर्थता होनेसे कायके सद्भावमें भी अयोगता होती है और उस प्रकारके सूक्ष्म काययोगके होनेसे निज शुद्धात्म चिद्रूप निर्भरानन्दसे शोभने वाले परमास्माको ध्यानका भी अस्तित्व विरोधित नहीं ॥ व्याख्या-इस अयोगि गुणस्थानमें सूक्ष्म काययोग होने पर भी कायव्यापार अति सूक्ष्म होनेके कारण तथा उस सूक्ष्म कायव्यापारको भी शीघ्र ही भावि नष्ट होनेसे अयोगता ( अयोगीपना) कही जाती है, क्योंकि यहाँ पर कायव्यापारमें इतनी सूक्ष्मता हो जाती है कि उससे कुछ शरीरका कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। तथा पूर्वोक्त सूक्ष्म शरीर व्यापारके होनेसे अयोगि गुणस्थानमें रहनेवाले, स्वकीय विशुद्ध परमात्म चिद्रूपमय परमानन्दकी लीनताको प्राप्त हुए पूर्वोक्त केवली भगवानको ध्यानकी संभावना भी हो सकती है। अर्थात् सूक्ष्म शरीरव्यापार होनेसे ध्यानका सद्भाव होता है ॥ ..... अब ध्यान संबन्धि निश्चय नय और व्यवहार नय बताते हैंआत्मानमात्मनात्मैव, ध्याता ध्यायति तत्वतः। उपचारस्तदन्योहि, व्यवहारनयाश्रितः ॥ ११०॥
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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