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________________ (१७२) गुणस्थानक्रमारोह. श्लोकार्थ-जिस ध्यानमें सूक्ष्म योगात्मक क्रिया भी समुच्छिन्न हो गई. है वह मुक्तिरूप मकानका द्वारभूत समुच्छिन्नक्रिया ध्यान कहा है ॥ .. व्याख्या-जिस ध्यानमें सूक्ष्म योगात्मक भी क्रिया नष्ट हो गई है याने सूक्ष्म कायव्यापार भी जिस ध्यानमें सर्वथा निवृत्तिको प्राप्त हो गया हो उसे समुच्छिन्नक्रिय निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान कहते हैं, अर्थात् केवली भगवानका जो सूक्ष्म कायव्यापार शेष रहा था, वह भी अब इस शुक्ल ध्यानके चतुर्थ पायेको ध्याते हुए नष्ट हो जाता है, इसीसे शुक्ल ध्यानका यह चौथा पाया मुक्ति मंदिरका द्वार कहा जाता है । __ अब शिष्यकी तरफसे प्रश्न होता है सो कहते हैंदेहास्तित्वे प्ययोगित्वं, कथं तद्घटते प्रभो। देहाभावे तथा ध्यानं, दुर्घटं घटते कथम् ॥ १०७॥ श्लोकार्थ-प्रभो ! देहके होते हुए अयोगीपना कैसे हो सकता है ? और देहके अभावमें ध्यानकी दुर्घटित घटना किस तरह हो सकती है?॥ व्याख्या-यहाँ पर शिष्य शंका करता है कि महाराज ! सूक्ष्म कायव्यापारके होने पर भी पूर्वोक्त केवली भगवान अ. योगी कैसे कहा जा सकता है ? और यदि देहाभाव है अर्थात् सर्वथा काययोगका अभाव है तो फिर काययोगके अभाव में ध्यानकी संभावना किस तरह हो सकती है ? क्योंकि ध्यान तो सयोगीको ही हो सकता है, काय योग नष्ट होने पर ध्यानकी संभावना हो ही नहीं सकती ॥ शिष्यके प्रश्नद्वयको सुन कर गुरु महाराज दोश्लोकों द्वारा उसका समाधान करते हैं--
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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