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________________ (१५६) गुणस्थानक्रमारोह. इसी कारण केवल ज्ञानकी उपमाके योग्य कोई वस्तु नहीं, वह सर्वथा उपमातीत निरावरण है। कहा भी है-चन्द्रादित्यग्रहाणां प्रभा प्रकाशयंति परिमितं क्षेत्रम् । कैवल्यज्ञानलाभो, लोकालोकं प्रकाशयति ॥१॥ अर्थ-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तारा वगैरहकी प्रभाकान्ति परिमित-परिमाणोपेत ही क्षेत्रको प्रकाशित करती है, परन्तु कैवल्य ज्ञान तो अनन्त लोकालोक क्षेत्रको प्रकाशित करता है। जिसने प्रथम तीसरे भवमें तीर्थंकर नाम कर्म बाँध लिया है उस केवली भगवानके लिए शास्त्रकार विशेषता बताते हैंविशेषात्तीर्थकृत्कर्म, येनास्यर्जितमूर्जितम् । तत्कर्मोदयतोऽत्रासौ, स्याजिनेन्द्रो जगत्पतिः ॥८५॥ ___ श्लोकार्थ-विशेषतासे जिसने तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया हुआ है, वह उस कर्मके उदयसे यहाँ पर जगत्पति जिनेन्द्र होता है ॥ ___ व्याख्या-तीर्थंकर भगवानकी भक्ति प्रमुख, बीस स्थानक विशेषकी आराधना करनेसे या श्री संघकी भक्ति करनेसे अथवा अन्य कोई तथा प्रकारका शुभ कार्य करनेसे जिस प्राणीने तीसरे भव पहले तीर्थंकर नाम कम उपार्जन किया हुआ है, वह प्राणी उस तीर्थकर नाम कर्मके उदयसे इस सयोगि केवलि गुणस्थानमें रहकर चौंतीस अतिशयों युक्त जिनेन्द्र पदवीको भोगता है । जिसने पूर्वमें तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन नहीं किया और क्षपक श्रेणी द्वारा केवल ज्ञानको प्राप्त किया है, उसे सामान्य केवली कहते हैं, या जिन कहते हैं और जिसने तीर्थकर नाम कर्मोदयसे तीर्थक त्पदवीको प्राप्त करके केवल ज्ञान प्राप्त किया है, उसे जिनेन्द्र .. कहते हैं । अर्थात् तीर्थंकर भगवानको जिनेन्द्र कहते हैं।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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