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________________ तेरहवाँ गुणस्थान, (१५५ ) व्याख्या-सयोगि गुणस्थानमें सयोगी केवली भगवानको अति विशुद्ध क्षायिक भाव तथा निश्चय तया क्षायिक ही परम विशुद्ध सम्यक्त्व और यथाख्यात चारित्र होता है। अर्थात् औपशमिक और क्षायोपशमिक भावकी अविद्यमानता होनेसे क्षायिक ही भावकी विद्यमानता होती है और दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयके क्षय होनेके कारण सम्यक्त्व और चारित्र भी मायिक ही होता है ॥ अब सयोगी महात्माका ज्ञान बल बताते हैंचराचरमिदं विश्वं, हस्तस्थामलकोपमम् । प्रत्यक्षं भासते तस्य, केवलज्ञानभावतः॥ ८४॥ श्लोकार्थ-जैसे हस्तगत आँवला साक्षात्कार तया देख पड़ता है वैसे ही उस योगीको केवल ज्ञानरूप मूर्यसे चराचर जगत प्रत्यक्ष तया भासित होता है। व्याख्या-जिस प्रकार हाथमें लिया हुआ ऑवलेका फल चारों तरफसे देख पड़ता है, उसी प्रकार केवल ज्ञानरूप सूर्यसे पूर्वोक्त केवल ज्ञानी महात्माको तीनों जगतके चराचर पदार्थ साक्षात्कार तया देख पड़ते हैं। केवल ज्ञानको शास्त्रकारोंने सूर्यकी उपमा दी है, वह केवल व्यवहारसे ही समझना, तथा सूर्यसे बढ़कर संसार भरमें अन्य कोई वस्तु प्रकाशक नहीं इसीसे केवल ज्ञानको सूर्यकी उपमा दी गई है, अन्यथा सूर्य तो जहाँ पर उसकी किरणें पड़ती हैं वहाँ पर ही वह प्रकाश करके उस स्थानमें रही हुई वस्तुओंका बोध करा सकता है, किन्तु केवल ज्ञानरूप सूर्य संसारके गुप्तसे गुप्त समस्त पदार्थों का बोध करता है, उन विश्वके समस्त भावोंको साक्षात्कार तया दिखाता है।
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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