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________________ ( १५२ ) गुणस्थानक्रमारोह. भवसे परम समतारसभावको धारण करता है, अर्थात् पूर्वोक्त ध्यान से योगीको परमोत्कृष्ट समरस भाव प्राप्त होता है । कहा भी है- ध्यानात् समरसी भाव, स्तदेकी करणं मतं । आत्मा यद पृथक्त्वेन, लीयते परमात्मनि ॥ १ ॥ पूर्वोक्त शुक्ल ध्यानके दोनों पाये श्रुत ज्ञानावलंबन पूर्वक पूर्वगत श्रुतार्थ संबन्धसे पूर्वधारी छदमस्थ योगीको ही प्राय होते हैं । अगले दो पाये शुक्लध्यानके सर्व प्रकार के आलंबन रहित होते हैं, अतः वे केवल ज्ञान और केवल दर्शन धारण करने वाले योगी महात्माको होते हैं । श्रुत ज्ञानसे एक अर्थ ग्रहण करके उस अर्थसे फिर शब्दमें प्रवेश करना और शब्द से फिर अर्थमें प्रवेश करना, एवं योग से योगान्तरमें प्रवेश करना, अथवा जब एक योगवाला होकर योगी महात्मा उत्पाद, स्थिति तथा व्ययादि पर्यायोंमेंसे अमुक एक पयार्यका ध्यान या चिन्तवन करता है । तब उसे एकत्व अविचार शुक्ल ध्यान होता है । अब क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तमें योगी महात्मा जो कुछ करता है सो कहते हैं इत्येतद्धयानयोगेन प्लुष्यत्कर्मेन्धनोत्करः । निद्राप्रचलयोर्नाशमुपान्त्ये कुरुते क्षणे ॥ ८० ॥ श्लोकार्थ - इस पूर्वोक्त प्रकारके ध्यान योग से योगी कर्मरूप इन्धनके समूहको दहन करता हुआ अन्तमें निद्रा और प्रचलाका नाश करता है । व्याख्या - अनादि काल से संचित किये हुए कर्मरूप इन्धनके समूहको पूर्वोक्त शुक्ल ध्यानानलके द्वारा भस्मावशेष करता हुआ क्षपक योगीश्वर बारहवें गुणस्थानके अवसानमें याने वारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयके पूर्व समय में निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंको क्षय करता है । "
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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