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________________ आठवाँ गुणस्थान. (१३७) अब शास्त्रकार कुम्भक प्राणायाम कहते हैंकुम्भवत्कुम्भकं योगी, श्वसनं नाभिपङ्कजे।, कुम्भक ध्यानयोगेन, सुस्थिरं कुरुते क्षणम् ॥५७॥ श्लोकार्थ-योगी कुंभक ध्यान योगसे कुंभके समान कुमक नामा पवनको नाभि कमलमें क्षणवार स्थिर करता है। " . व्याख्या-योगी महात्मा कुंभक कर्म या कुंभक ध्यानके प्रयोगसे कुंभवत-घटके समान घटाकार करके कुंभक नामा पवनको नाभि कमलमें स्थिर करता है । कहा भी हैं-चेतसि श्रपति कुम्भकचक्रं, नाडिकासु निविडकृतवातः । कुम्भवत्तरति यजल मध्ये, तद्वदन्ति किल कुम्भकं कर्म ॥१॥ पवनको जीतनेसे मन जीता जा सकता है, इसलिए अब शास्त्रकार इसीके विषयमें कहते हैं इत्येवं गन्धवाहाना-माकुञ्चनविनिर्गमौ । संध्यायनिश्चलं धत्ते, चित्तमेकाग्रचिन्तने ॥५८॥ श्लोकार्थ-इस प्रकार पवनके आकुंचन (संकोच) और निर्गमनको साध कर (योगी) एकाग्र चिन्तवनमें चित्तको निश्चल करता है। ब्याख्या -इस पूर्वोक्त प्रकारसे पूरक, रेचक और कुंभक प्राणायामके क्रमसे योगी महात्मा प्राण वायुके संकोच तथा निर्गमनका अभ्यास करके अपने मनको एकाग्र करके समाधि ध्यानमें निश्चल करता है, क्योंकि प्राण वायुके साथ मनका संबन्ध है । जहाँ पर मन है वहाँ पर प्राणवायु है और जहाँ पर माणवायु है वहाँ पर मन है । जिस प्रकार दूध और पानीका मेल या संबन्ध है, उसी तरह सदा काल समान ही क्रिया वाले मन और - १८
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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