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________________ (११६) गुणस्थानक्रमारोह. होता है-अरिहन्त पदका अकार तथा अशरीरी (सिद्ध) पदका अकार मिलने पर “सवर्णे दीर्घः सह," व्याकरणके इस सूत्रसे आकार हो जाता है । आचार्य पदका आदिका आकार मिलानेसे “पूर्वदीर्घस्वरं दृष्ट्वा परलोपो विधीयते," व्याकर• णके इस पारिभाषिक सूत्रसे आकारका लोप किया जाने पर आकार ही शेष रह जाता है । उपाध्याय पदका उकार मिलानेसे “ऊ ओ" इस मूत्रसे आकार तथा उकार मिलने पर सन्धिसे ओकार हो जाता है । मुनि पदका स्वर हीन मकार ग्रहण करने पर "मोऽनुस्वारः" इस सूत्रसे मकारका अनुस्वार होनेसे ॐ कार पद सिद्ध होता है । पूर्वोक्त रीतिसे ॐ कार पदमें पंच परमेष्ठी पदका समावेश होता है अतः ॐ कार पदका ध्यान करनेसे पाँचों ही पदका ध्यान हो सकता है । इसी तरह दूसरे पदोंमें भी इष्ट देवोंका समावेश समझ लेना, जैसे चतुर्विशति जिनस्तव याने चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति, जिसे लोगस कहते हैं । इस प्रकार इष्ट देव वाचकात्मक पदोंका ध्यान, जाप तथा स्मरण करनेसे आत्मामें निर्मलता-विशुद्धि प्राप्त होती है। अब तीसरे रूपस्थ ध्यानका स्वरूप लिखते हैं। साकार परमात्माका चिन्तवन करना, उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । द्रव्य, गुण, पर्यायों सहित अर्हत्परमात्माके स्वरूपको जो मनुष्य जान सकता है वही उस परमात्म पदकाध्यान कर सकता है । यों तो अनन्त गुणी परमात्माके अनन्त ही नाम हो सकते हैं तथापि विशेष प्रसिद्धिगत उसके वाचक तीन शब्द हैंअईत् , अरिहन्त और अरुहन्त । चौतीस अतिशयोंसे युक्त तथा नरेन्द्र देवेद्रोंसे पूजित जो हो उसे अहंद कहते हैं, क्योंकि अई, धातु गुना अर्थमें आता है और उससे ही अहंत शब्द
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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