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________________ छठा गुणस्थान. (१०७) मृग आकर कब मूंगेंगे, अर्थात् ऐसी प्रौढ समाधि दशाको मैं कब प्राप्त करूँगा ? कि जिस दशामें वनचर पशु भी प्रशान्त होकर मेरे मुँह या शरीरको राँगें। शत्रु, मित्र, तृण, स्त्रीसमूह, सुवर्ण, पाषाण, मणि रत्न, मिट्टी, मोक्ष और संसार, इन सबके अन्दर मैं समान दृष्टिवाला कब होऊँगा? अर्थात् ऐसी अध्यात्म दशाको मैं किस दिन प्राप्त करूँगा कि जिस दशामें संसार और मोक्ष, इन दोनोंमें मुझे स्पृहा न रहे और इन्हें समान दृष्टिसे देखू याने इनमें समभाव धारण करूँ ? इस प्रकार अनेक महान् विद्वान तत्त्ववेत्ता पुरुषोंने परमात्म तत्वके मनोरथ किये हैं और मनोरथ अप्राप्त वस्तुका ही किया जाता है, किन्तु प्राप्त किये हुए पदार्थका कभी मनोरथ नहीं किया जाता। जो मनुष्य सदा काल मिष्टान्नका भोजन करता है, वह कभी मिष्टान्नकी वांछा नहीं करता या जो मनुष्य साम्राज्य लक्ष्मीको भोगता हो वह कभी यह प्रार्थना नहीं करता कि मुझे सम्राट् पद प्राप्त हो या कब प्राप्त होगा। अतः परम संवेगको प्राप्त करके प्रमत्त गुणस्थानमें रहनेवाले विवेकी पुरुषोंको प्रमत्त गुणस्थानके वशसे शुद्ध परमात्म-तत्वसंवित्तिके मनोरथ करने चाहिये, किन्तु षडावश्यकादि क्रिया व्यवहारको त्यागना न चाहिये। जो कि शास्त्रमें फरमाया है-योगिनः समतामेतां, प्राप्य कल्पलतामिव । सदाचारमयीमस्यां, वृत्ति मातन्वतां बहिः ॥१॥ ये तु योगग्रहग्रस्ताः , सदाचारपरांमुखाः। एवं तेषां न योगोपि, न लोकोपि जडात्मनाम् ॥२॥ अर्थ-योगी पुरुषको चाहिये कि कल्पलताके समान समताको प्राप्त करके उस सदाचारवाली समतामें बाह्य प्रवृत्ति भी रक्खे । जो मनुष्य केवल योग-ध्यानके ही कदाग्रहसे ग्रस्त होकर क्रियानुष्ठानका परित्याग कर बैठते हैं, वे न तो योगको ही प्राप्त कर सकते और ना ही वे
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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