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________________ ( १०६ ) गुणस्थानक्रमारोह. saकुटुम्बके विघटिते ध्वान्ते भ्रमारम्भके | आनन्दे प्रविजृम्भिते जिनपते ज्ञाने समुन्मीलिते, मां द्रक्ष्यन्ति कदा वनस्थमभितः शस्ताशयाः श्वापदाः || २ || अर्थ - चित्तकी निश्चलता प्राप्त होने पर, इन्द्रिय समूहके निग्रह होने पर, भ्रान्ति जनक सांसारिक आरंभ समारंभके नष्ट होने पर, आत्मसुखानन्दके प्राप्त होने पर तथा जिनेश्वर देव संबन्धि ज्ञानके स्फुरायमान होने पर वनमें ठहरे हुएको मुझे प्रशस्त आशयवाले होकर वनवासि पशु कब देखेंगे । अर्थात् पूर्वोक्त विशेषणोंसे युक्त जंगलमें रहे हुए ध्यानावस्थामें मुझे जंगली पशु प्रशस्ताशयवाले होकर कब देखेंगे । श्री सूरप्रभाचार्य महाराज के अभिलाष - चिदावदातैर्भवदागमानां, वाग्भेषजैरागरुजं निवर्त्य । मया कदा प्रौढ समाधि लक्ष्मी निवर्त्यते निर्वृत्ति निर्विपक्षा || १ || रागादि हव्यानिमुहुलिहाने, ध्यानानले साक्षिणी केवलश्रीः । कलत्रतामेष्यति मे कदैषा, पुर्व्यपायेप्यनुयायिनी या || २ || अर्थ - हे प्रभु! आपके आगमोक्त निर्मल ज्ञानरूप औषधके द्वारा राग ( मोह ) को दूर करके निर्वृत्ति निर्व्यपेक्ष प्रौढ़ समाधि लक्ष्मीको मैं कब प्राप्त करूँगा ? | साक्षीभूत ध्यानरूप अग्निमें रागादि हव्य वस्तुका वारंवार हवन होने पर, शरीरका नाश होने पर भी साथ रहने वाली केवल ज्ञानरूप लक्ष्मी स्त्रीपनेको मुझे कब प्राप्त होगी ? । तथा कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य महाराज भी पूर्वोक्त दशाकी अभिलाषा ही करते हैं - वने पद्मासनासीनं, क्रोडस्थितमृगार्भकम् । कदा प्रास्यन्ति वत्रे मां जरन्तो मृगयूथपाः ॥ १ ॥ शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रेणै, स्वर्णेश्मनि मणौ मृदि । मोक्षे भवे भविष्यामि निर्विशेष मतिः कदा ? || २ || अर्थ - पद्मासन लगाकर जंगलमें बैठे हुए तथा जिसकी गोदमें मृगका बच्चा बैठा है, ऐसी दशामें मुझे बूढे
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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