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उत्थेणी वाससहस्सा सत्त उ सामण्णधरं उवगएणं ॥ ४१०॥ तह उत्तमढकाले देहे निरवक्खयं उवगएणी तिलछित्तलावगा इव आयंका विसहियव्वा ॥१॥पारिव्वायगभत्तो राया पट्ठीइ सेट्ठिणो मूढो। अच्चुण्हं परमन्नं दासी य सुकोवियमणुस्सा॥२॥ सा य सलिलुललोहियमंससवसापेसिथिगलं चित्तुं उपइया पट्ठीओ पाई जह रक्खसवहुव्व ॥३॥तेणय निव्वेएणं निग्गंतूणं तू सुविहियसगासे। आरूहियचरित्तभरोसीहोरसियं समारूढो ॥४॥तम्मिय महिहरसिहरे सिलायले निम्मले महाभागो।वोसिरह थिरपइन्नो सव्वाहारं मह तणु य ॥५॥तिविहोवसग सहिउँ पडि सो अण्णमासियं धीरो । ठाइ य पुव्वाभिमुहो उत्तमधिइसत्तसंजुत्तो॥ ६॥ सा य पगलंतलोहियमेयवसा मसला परी (लंच।) पट्टी। खजइ खगेहि दूसहनिसट्टचंचुप्पहारेहिं॥७॥ मसएहि मच्छियाहि य कीडीहिवि मंससंपलम्गाहिं। खजंतोविन कंपइ कम्मविभागं गणेमाणो ॥८॥रत्तिं च पयइविहसियसियालियाहिं निरणुकंपाहि। उक्सग्गिज धीरो नाणाविहरुवधारीहिं ॥९॥ चिंतेइ यखरकवयअसिपंजरखम्ममुग्गरवहाओ। इणमो न हु कट्टयरं दुक्खं निरयग्गिदुक्खाओ। ४२०॥एवं च गओ पक्खो बीओपक्खो य दाहिणदिसाए। अवरेणविपक्खोविय सभइतो महेसिस्स॥१॥तह उत्तरेण पक्खं भगवं अविकंपमाणसो सहइ। पडिओ य दुभासते नभोत्ति वोत्तुं जिणिंदाणं ॥२॥ कंचणपुरस्मि सिट्ठी जिणधम्मो नाम सावओ आसी। तस्स इमं चरियपयं तउ एयं कित्तिममुणिस्स ॥३॥जह तेण वितथभुणिमा उवसग्गा परमदूसहा सहिया। तह उवसग्गा सुविहिय! सहियव्वा उत्तमटुंमि ॥४॥निष्फेडियाणि दुण्णिवि सीसावेढेण जस्स अच्छीणिोन य संजमाउ चलिओ मेअज्जो मंदरगिरिव॥५॥जो कुंचगावराहे ॥ श्री भरणसमाधि सूत्र
| पू. सागरजी म. संशोधित
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