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||१४० जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो आओ वश्या अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं|| उईणं इय सच्चंसि परि (चिए) चिटुिंसु, साहिस्सामो नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सयाजयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं, किमत्थि उवाही पासगस्स? न विजइ ? नस्थितिबेमि । १४१॥३० ४ सभ्यकत्वाध्ययनं ४ ॥
आवंती केयावंती लोयंसि विपरामुसंति अट्ठाए अणढाए, एएसुचेव विष्परामुसंति (जावंति केई लोए छकायवहं समारभंति अट्टाए अणद्वाए अणट्टाए वा पा० ) गुरू से कामा तओ से मारते, जओ से मारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव दूरे ।१४२।से पासइ फुसियमिव कुसग्गे पणुनं निवइयं वाएरियं, एवं बालस्स जीवियं मंदसस्स अवियाणओ, कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विपरिआसमुवेइ, मोहेण गब्धं मरणाई एइ, एत्थ मोहे पुणो पुणो । १४३। संसयं परिआणओ संसारे परित्राए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरित्राए भवइ । १४४। जे छेए से सागारियं न सेवइ, कटु एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया (जे खलु विसए सेवइ, सेवित्ता वाणालोएइ, परेण वा पुट्ठो निण्हवइ, अहवा तं परं सएणवा दोसेण पाविट्ठयरेण वा दोसेण उवलिंपिज्जत्ति पा० ) लद्धा हुरत्था पडिलेहाए, आगभित्ता आणविजा अणासेवणयत्तिबेमि ॥१४५। पासह एगे रुवेसु गिन्द्रे परिणिजमाणे इत्थ फासे पुणो पुणो (एत्थ मोहे पुणो पुणो पा० ) आवंती केयावंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी, इत्थवि बाले परिपच्चमाणे |रभई पावेहिं कम्भेहिं असरणे सरणंति मन्त्रमाणे, इहमेगेसि एगचरिया भवइ से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहलोभे बहरए बहुनडे | ॥श्रीआचारा मत्र॥
पू. सागरजी म. संशोधित
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