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पमाय-मित्त-दोसेण जिण-रित्था जहा दुहं । पत्तं संगास-सड्डेण, तहा अण्णो वि पाविही
॥६० ।। संकास, गंधिलावई, सक्का-ऽवयारम्मि चेइये, कह वि।
चेइय-दव्युव्व योगी, पमायओ मरणं, संसारे तगराए इब्भ-सुओ जाओ, तक्कम्म-सेसयाओ य।। दारिद्दमऽ-संपत्ती, पुणो पुणो चित्त-णिव्वेओ ॥६२॥ केवलि-जोगे पुच्छा, कहणे बोही, तहेव संवेओ। किं इत्थमुचिअमिर्खि, चेइय-दव्वस्स वुड्डीत्ति ॥ ६३ ॥ गास-च्छायण-मित्तं मुत्तुं, जं किंचि मझं, तं सव्वं । चेइय-दव्वं णेयं, अभिग्गहो जाव-जीवाए ॥६४ ॥ सुह-भाव-पवित्तीए संपत्ती, ऽभिग्गहम्मि णिच्चलया। चेइय-हर-कारावण, तत्थ, सया-ऽऽभोग-परिसुद्धी ॥६५ ।। इय सो महा-ऽणुभावो, सव्वत्थ ऽवि अ-विहि-भाव-चाएणं । चरिऊ विसुद्ध-धम्मं, अ-क्खलिआ-ऽऽराहगो जाओ ॥ ६६ ॥ संकासो वि विभित्तूणं, कम्म-गंठिं सु-णिबुडो। जाहिही सो उ णिव्वाणं महा-सत्तो, ण संसओ ॥६७ ॥ जइ इच्छह णिव्वाणं, अह वा लोए सु-वित्थडं कित्ति । ता जिण-वर-णिद्दिष्टे, विहि-मग्गे आयरं कुणह ॥६८ ।। तह-विह-भवि-बोहण-ऽत्थं भणियं जं च विवरीयं इह गंथे। तं सोहंतु गीय-त्था, अण-ऽभिनिवेसी अ-मच्छरिणो ॥६९ ॥ तव-गण-गयण-दिवा-यर-विजया-ऽऽइ-माण-सूरि-रज्जम्मि । भाणु-विजय-बुह-सेवग-वायग-लावण्ण-विजयेण ॥ ७० ॥ गंथं-उतर-गाहाहिं, सम-ऽत्थिया दव्व-सित्तरी एसा । भविअ-जण-बोहण-ऽत्थं, मंगल-मालं कुणउ णिच्चं
॥ ७१ ।।
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