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पू.आ.श्रीमुनिसुन्दरसूरिविरचिता
॥पाक्षिकसप्ततिका ॥ देविंदविंदवंदियपयपउमं वंदिउं जिणं वीरं । आवस्सयस्स रूवं, समासओ किंपि जंपेमि सामाइयचउवीसत्थाइ जमवस्समेव करणिज्जं । समणाइणा तमावस्सयंति सुत्ते जओ भणियं समणेण सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो अहो निस्सिसा तम्हा आवस्सयं बिति तं दव्व - खित्तकाले भावं च पडुच्च दव्वओ तत्थ । साहूसु साहुणीसु अ, सुस्सावयसावियासुं च खित्तम्मि गुरुसमीवे सिरिवच्छालंकारमंडलीए य । तव्विरहे ठवणाए तस्स च्चिय जं सुए भणियं आवस्सयं पि निच्चं गुरुपामूलम्मि देसियं होइ । वीसं पि हु संवसिओ कारणओ जदभिसिज्जाए ठवणा वि य नियगुरुणो सुत्ते भंतेति जेण गणहारी । आमंतइ तित्थयरं सेसा अप्पप्पणो य गुरू काले पुण पंचविहं दिवसनिसापक्खियाइभेएण । आरयणिपढमपहरा उ देसियं देसियं तत्थ उग्घाडपोरिसिं जा राईयमावस्सयस्स चुण्णीए । ववहाराभिप्पाया भणंति पुण जाव पुरिमर्द्ध पक्खियपडिक्कमणं पुण चउद्दसीइ तिहीइ कायव्वं । तं जेण चउत्थेणं भत्तेणेवं सुआएसो अट्ठमछट्ठचउत्थं संवच्छरचउम्मासपक्खेसु । न करेण सायबहुलत्तणेण जो तस्स पच्छित्तं
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