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निद्दाविहि उवएसा, इतियमित्तासु सुत्तवित्तीसु । नहु अस्थि जिणवराणं, छउमत्थाणं कुतो भणिओ ॥१२३ ॥ छउमत्थाणं दसण, आवरणस्सोदया जइ वि निद्दा । होइ तहा वि जिणुत्त, विहीइ नहु सद्दहेयव्वा
॥ १२४ ।। रयणीइ तइय जामे, पडिसेहो केवलस्स जइ हुज्जा । ता मण्णिज्जइ जम्हा, निदाए केवलं नत्थि
॥ १२५ ॥ छउमत्थस्स पमाओ, पमायलेसो वि नत्थि केवलिणो। दुण्हं को आणाए, कोय अणाणाइ आणाए
॥१२६ ॥ जस्स इरियावहिया, रीयत्तिहा सुत्तमेव सो चेव। जस्स विय संपराई, सो णेयव्वो अणाणाए
॥१२७ ॥ उवसंतकसायस्स य, खीणकसायस्स य तहारियावहिया। इयरस्स संपराइय, इय भणियं पंचमंगम्मि
॥१२८ ॥ सत्तमदसमसयम्मि य, अट्ठारसमे सयम्मि इय नच्चा । जिणवरवाणी सच्चा, तं सुच्चा सद्दहेयव्वं
॥ १२९॥ उद्धट्ठिउ उवविट्ठस्स मवारण कारणे समुप्पण्णे । समणो तुयट्टिउमणो, जो सो संथारगं कुज्जा ॥ १३०॥ संथारुत्तरपट्टो भणिउ जेणुग्गहम्मि उवहीए । नहु उहिओय एसो, जाणिज्जइ तेण कारणिओ ॥ १३१ ।। संथारस्स य करणं छठे अंगम्मि साहुवग्गस्स। पढमज्झयणे भणियं जाणह चरिओवएसेणं ।। १३२ ॥ तस्स विही भूमिं पउंज्जिउणं, वत्थाण पमज्जणाउ चउवीसं । काउणं दिट्ठीए, न होइ पडिलेहणा एगा
।। १३३ ॥ तत्तो य पत्थरित्ता संथार सड्ढ हत्थ दुगमित्तं । संकोडियसंडासो जयं सए जत्थ उवउत्तो
॥ १३४॥
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