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॥ द्वादशभावना ॥
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अह पुच्छइ कुमर-नराहिराउ, मण - मक्कड - नियमण-संकलाउ । कह की हि बारह भावणाउ, तो अक्खड़ गुरु घण - गहिर - नाउ १ ॥ चलु जीविउ जुव्वणु धणु सरीरु, जिव कमल - दलग्ग - विलग्गु नीरु । अहवा इहत्थि जं किं पि वत्थु तं सव्वु अणिच्चु हहा धिरत्थु २ ॥ पिय माय भाय सुकलत्तु पुत्तु, पहु परियणु मित्तु सिणेहजुत्तु । पहवंतु न रक्खइ को वि मरणु, विणु धम्मह अण्णु न अत्थि सरणु३ या विरंकु सयणो वि सत्तु, जणओ वि तणउ जणणि वि कलत्तु । इह होइ नडुव्व कुकम्मवंतु, संसार - रंगि बहुरूवु जंतु एकल्लउ पावइ जीवु जम्मु, एकल्लउ मरइ विढत्त - कम्मु । एकल्लउ परभवि सहइ दुक्खु, एकल्लउ धम्मिण लहइ मुक्खु ॥ ५ ॥ जहिं जीवह एउ वि अण्णु देहु, तर्हि किं न अण्णु धणु सयणु गेहु । जं पुण अणण्णु तं एक्क - चित्तु, अज्जेसु नाणु दंसणु चरितु ॥ ६ ॥ वस - मंस - रुहिर - चम्मऽट्ठि-बद्ध, नव-छिड्ड झरंत मलावणद्ध । असुर- सरूव-नर-थी- सरीर, सुइबुद्धि कह वि मा कुणसु धीर७ ॥ मिच्छत्त-जोग-अविरइ- पमाय, मय- कोह- लोह-माया- कसाय । पावासव सव्वि इमे मुणेहि, जइ महसि मोक्खु ता संवरेहि ॥ ८ ॥ जह मंदिर रेणु तलाइ वारि, पविसइ न किंचि ढक्किय दुवारि । पिहियासवि जीवि तहा न पावु, इय जिणिहि कहिउ संवरु पहावु ॥ ९ परवसु अण्णाणु जं दुहु सहेइ, तं जीवु कम्मु तणु निज्जरेइ । जो सहइ सवसु पुण नाणवंतु, निज्जरइ जिइंदिउ सो अणंतु ॥ १० ॥ जहिं जम्मणु मरणु न जीवि पत्तु तं नत्थि ठाणु वालग्ग - मत्तु । उड्डा - हो - चउदस-रज्जु - लोगि, इय चिंतसु निच्चु सुओवओगि ११
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