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विरइय सयलवि जिहिं, खट्टिग साल - विसाल। तह भव-वणि जम्मण-मरण, होसइ दह दुह-माल ।। ८३ ॥ पूयउ देवय चरउ तवु, वियरउ दाणु पहाणु। जइ पारद्धिहि किम्वइ मणु ता सयलुवि अपमाणु आहेड़िय जूयारियहँ, थुव सुह उवरि अभाउ । कह मण्णहह भोगवि मुयवि, घल्लहिं दुहि निउकाउ ॥ ८५ ॥ अवयारि वि जे उवयरहि, ते नर धर लंकारु । मज्जुत्थह जे असु हरहि, ते धुउ धरणिहिं धा[भा]रु ॥८६ ।। जे पंचिंदिय वहु करहिं, ते निग्घिण चंडाल । सुहु एक्कह वि न इंदियह, भवि भवि लहइ ति आल ॥ ८७ ॥ जइ अप्पई सव्वई दुहई, तुहु समुदियइ दि दिक्खु । वावारंतर परिहरिवि, ता आहेड़उ सिक्खु धण्ण ति वण्णउं घर वलय, तिहुयण-जण-नय-पाय । जह सव्वहँ जीवहँ वहहु, विरया मण वय काय सच्चं मिउ हिउ धम्मु परु, आलोचिउ जि वयंति । लहु दुह सुहासहि पूरियउ, ते भव-वासु वयंति जह मणि कंचण लदुवल, समभावह सुपवित्तु । वि[? चित्तु विरत्तउ चोरियहु, तह वन्दउ सुचरित्तु ॥९१ ॥ मेहुण सेवणि जाहँ मणु, सव्व पयारि निवित्तु । सचराचर इहु जगवलउ, तहिं निम्मिउ सुपवित्तु ॥ ९२॥ धम्मोवगरण मेत्त धण, ते परिगहु न करिति । पंडिय जण आणंदयर, ते गुण रयण धरिति ता राइहिं अब्भव हरइ, जो चउविहु आहारु । नरसिरि सुरसिरि सिद्धसिरि, [?सुल] हहं सु पर आहारु ॥ ९४ ।।
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