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पुष्पैर्गन्धैर्बहुपरिमलैरक्षतैर्धूपदीपैः सन्नैवेद्यैः शुभफलगणैर्वारिंसम्पूर्णपात्रैः । कुर्वाणास्ते जगदधिपतेरर्चनामष्टभेदां सर्वाशंसारहितमतयो विश्ववन्द्या भवन्ति
पूअइ जो जिणचंद, तिण्णि वि सञ्झासु पवरकुसुमेहिं । सो पावइ सुरसुक्खं, कम्मेण मुक्खं सया सुक्खं
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अंगं गंधसुअंधं, वण्णं रुवं सुहं च सोहग्गं । पावइ परमपयं पिहु पुरिसो जिणगंधपूआए अक्खण्डफुडिअचुक्खक्खएहिं पुञ्जत्तयं जिणंदस्स । पुरओ नरा कुणन्ता पावन्ति अखण्डियसुहाई मयणाभिचन्दणागुरुकप्पूरसु अन्धगन्धधूवेहिं । पूअइ जो जिणचन्दं इज्जइ सो सुरिन्देहिं जो देइ दीवयं जिणवरस्स भवणम्मि परमभत्तीए । सो निम्मलबुद्धिधरो, रमइ नरो सुरविमाणेसु ढो बहुभत्तिजुओ नेवज्जं जो जिणंदचंदाणं । भुंजइ सो वरभोए, देवासुरमणुअनाहाणं वरतरुपवरफलाई ढोयइ जो जिणवरस्स भत्तीए । जम्मंतरे वि सहला, जायंति मणोरहा तस्स ates जो जलभरिअं कलसं भत्तीइ वीयरायाणं । सो पावइ परमपयं, सुपसत्थं भावसुद्धीए मनोवाक्कायवस्त्रोर्वीपूजोपकरणस्थितौ । शुद्धिः सप्तविधा कार्या, श्रीजिनेन्द्रार्चनक्षणे संसारपारगं वीतरागं मुक्तिसुखप्रदम् । चम्पकादिकविस्तीर्णकुसुमैः पूजयेद् बुधः
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