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॥ २० ॥
चलं जीयं धणं धण्णं बंधुमित्तसमागमो। खणेण ढुक्कए वाही ता पमाओ न जुत्तओ न तं चोरा विलुपंति न तं अग्गी विणासए । न तं जूएण हारेइ जं धम्मम्मि (न)पमत्तओ किण्हसप्पं करग्गेणं विसं घुटेहिं छुटए । महानिहिं पमुत्तूणं कायखंडं स गिण्हइ लद्धे जिणिदधम्मम्मि सव्वकल्लाणकारए। वियाणंतो भवं घोरं जो पमायं न मुच्चए ता सोम ! तं वियाणंतो मग्गं सव्वण्णुदेसियं । पमायं जं न मेल्हेसि तं सोएसि भवण्णवे एवंविहाहि वग्गूहिं चोएयव्वो सुसावओ। भाववच्छल्लयं एयं कायव्वं तु दिणे दिणे इय दव्वभावभेयं काउं साहम्मियाण वच्छल्लं । सव्वण्णुभणियमेयं जिणपहमणहं लहइ जीवो
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पू.आ. श्रीजिनप्रभसूरिविरचितम्
॥धर्माधर्मविचारकुलकम् ॥ अह जण निसुज्जउ कण्णु धरिज्जउ धम्माधम्म-विचार फुडु। जिम जाणिउ जिणपहु मिल्हउ कुप्पहु पावउ सिवसुहअमय फुडु ॥१॥ एउ सव्वहं धम्महं परमठाणु जं दीजइ जीवहं अभयदाणु । पुढवाइजीवनवभेय हुंति जे रक्खई सिवसुहु ते लहंति ॥२॥ जे जंपई हिउ-पिउ-सच्च-वयणु ते लहइं अणोवमु धम्मरयणु । परधणु न लेइ जो धम्मवंतु सो होई सिद्धिरमणीइ कंतु ॥३॥
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