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१. धर्मोपदेशामृतम् स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ
स्फुटं निर्ग्रन्थानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥४५॥ 46) वयमिह निजयूथभ्रष्टसारङ्गकल्पाः परपरिचयभीताः कापि किंचिञ्चरामः।
विजनमिह वसामो न व्रजामः प्रमादं स्वकृतमनुभवामो यत्र तत्रोपविष्टाः॥४६॥ 47 ) कति न कति न वारान्भूपतिर्भूरिभूतिः
कति न कति न वारानत्र जातोऽसि कीटः। नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दुःखं
जगति तरलरूपे किं मुदा किं शुचा वा ॥ ४७ ॥ 48 ) प्रतिक्षणमिदं हृदि स्थितमतिप्रशान्तात्मनो
मुनेर्भवति संवरः परमशुद्धिहेतुर्भुवम् । तुल्यम् । अथ । रिपुः शत्रुः । अथ परं मित्रम् । मुनीनां द्वयमपि समम् । सुखं वा दुःखं वा द्वयमपि समं सदृशम् । वा पितृवनं स्मशानभूमिः अथवा सौधं मन्दिरम् । द्वयमपि समम् । मुनीनां स्तुतिवा निन्दा वा द्वयमपि समम् । अथवा मरणं अथवा जीवितं द्वयमपि समम् ॥४५॥ इह संसारे । वयम् । क्वापि स्थाने । किंचित् स्तोकम् । चरामः भुजामहे । किंलक्षणाः वयम् । निजयूथभ्रष्टसारजकल्पाः खकीययूथभ्रष्टमृगसदृशाः। पुनः किंलक्षणाः वयम् । परपरिचयभीताः परपदार्थसंगेन भीताः वयम् ।
इत स्थानम् । अधिवसामः। वयं प्रमादं न व्रजामः प्रमादं न गच्छामः । यत्र तत्रोपविष्टाः यस्मिंस्तस्मिन् स्थाने उपविष्टा निषण्णाः स्थिताः । खकृतं आत्महितम् । अनुभवामः स्मरामः ॥ ४६ ॥ अत्र संसारे । कति न कति न वारान् भूपतिर्जातोऽस्मि । किंलक्षणो भूपतिः । भूरिभूतिः बहुलविभूतिः। अत्र संसारे। कति न कति न वारान् कीटः जातोऽस्मि । इति हेतोः। नियतं निश्चितम् । कस्यापि सौख्यं नास्ति वा दुःखं न । तरलरूपे जगति चञ्चलरूपे संसारे। मुदा हर्षेण किम् । वा अथवा। शुचा शोकेन किम् । न किमपि ॥४७॥ इदं पूर्वोक्तं(2) विचारः। प्रतिक्षणं क्षणं क्षगं प्रति समयं समयं प्रति। अतिप्रशान्तात्मनः मुनेः हृदि स्थितम् । ध्रुवं निश्चितम् । संवरः भवति । किंलक्षणः संवरः । परमशुद्धिहेतुः परमशुद्धिकारणम् । संवरेण कृत्वा । दुःख, श्मशान और प्रासाद, स्तुति और निन्दा, तथा मरण और जीवन; इन इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में स्पष्टतया समबुद्धि हुआ करती है । अभिप्राय यह कि वे तृण एवं शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थोमें द्वेषबुद्धि नहीं रखते तथा उनके विपरीत रत्न एवं मित्र आदि इष्ट पदार्थोंमें रागबुद्धि भी नहीं रखते, किन्तु दोनोंको ही समान समझते हैं ।। ४५॥ मुनि विचार करते हैं कि यहां हम लोग अपने समुदायसे पृथक् हुए मृगके सदृश हैं । अत एव उसीके समान हम भी दूसरोंके परिचयसे भयभीत होकर कहीं भी (किसी श्रावकके यहां ) किंचित् भोजन करते हैं, यहां एकान्त स्थानमें निवास करते हैं, प्रमादको नहीं प्राप्त होते हैं, तथा जहां कहीं भी स्थित होकर अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मका अनुभव करते हैं ॥ ४६ ॥ मैं कितनी कितनी बार बहुत सम्पत्तिशाली राजा नहीं हुआ हूं? अर्थात् बहुत बार अत्यन्त विभवशाली राजा भी हुआ हूं। इसके विपरीत कितनी कितनी बार मैं क्षुद्र कीड़ा भी नहीं हुआ हूं ? अर्थात् अनेकों भवोंमें मैं क्षुद्र कीड़ा भी हो चुका हूं। इस परिवर्तनशील संसारमें किसीके भी न तो सुख ही नियत है और न दुःख भी नियत है। ऐसी अवस्थामें हर्ष अथवा विषाद करनेसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं ॥ विशेषार्थअभिप्राय यह है कि यह प्राणी कभी तो महा विभूतिशाली राजा होता है और कभी अनेक कष्टोंका अनुभव करनेवाला क्षुद्र कीटक भी होता है । इससे यह निश्चित है कि कोई भी प्राणी सदा सुखी अथवा दुखी ही नहीं रह सकता । किन्तु कभी वह सुखी भी होता है और कभी दुखी भी । ऐसी अवस्थामें विवेकी जन न तो सुखमें राग करते हैं और न दुखमें द्वेष भी ॥४७॥ जिसकी आत्मा अत्यन्त शान्त हो चुकी है ऐसे मुनिके हृदयमें सदा ही उपर्युक्त विचार स्थित रहता है। इससे उसके निश्चित ही अतिशय विशुद्धिका