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पद्मनन्दि- पञ्चविंशतिः
20 ) गतो ज्ञातिः कश्चिद्वहिरपि न यद्येति सहसा शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः । परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः ॥ २० ॥
[ 20 : १-२०
21 ) सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्र जन्मन्यधिकमधिकम यत्परं दुःखहेतुः ।
तदपि न यदि मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भिः स्वहितमिह किमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥ २१ ॥
22 ) आस्तामेतद्यदिह जननीं वल्लभां मन्यमाना
निन्द्याष्टा विदधति जना निस्त्रपाः पीतमद्याः ।
कश्चित् ज्ञातिः स्वगोत्री जनः । बहिरपि गतः प्रामान्तरे गतः । यदि सहसा शीघ्रं न एति न गच्छति । तदा जनः शिरो हत्वा हत्वा रोदिति । किंलक्षणो जनः । कलुषितमनाः । परेषां जीवानां मृगादीनाम् । पलं मांसम् । उत्कृत्य छित्त्वा छेदयित्वा । प्रकटितमुखं प्रसारितमुखं यथा स्यात्तथा खादति । एवंविधः मूर्खलोकः । रे कले भो पञ्चमकाल । इह संसारे । अथ इदानीम् अस्मिन्प्रस्तावे भवच्चित्रचरितैः वयं निर्विण्णाः ॥ २० ॥ यन्मयम् । अत्र जन्मनि । सकलपुरुषधर्मभ्रंशकारि सकलाः ये पुरुषधर्माः तेष धर्मार्थकामानां अंशकारि विलयकरणशीलेम् । यन्मयम् । अग्रे परजन्मनि । अधिकमधिकं परं दुःखहेतुः कारणम् । तदपि । बुद्धिमद्भिः पण्डितैः । मद्यं यदि नें त्यज्यते । इह लोके स्वहितम् आत्महितम् । धर्माय अन्यकिं कार्य करणीयम् ॥ २१ ॥ इह लोके । पीतमद्याः जनाः निन्द्याश्चेष्टाः विदधति कुर्वन्ति । यत् जननीं वल्लभां मन्यमानाः जनाः । एतत् आस्तां दूरे तिष्ठतु ।
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है । अत एव सज्जन पुरुष उसका केवल परित्याग ही नहीं करते, अपि तु उसको वे हाथसे स्पर्श करना और आंख से देखना भी बुरा समझते हैं। मांसभक्षक जीवोंकी दुर्गति अनिवार्य है ॥ १९ ॥ यदि कोई अपना सम्बन्धी स्वकीय स्थानसे बाहिर भी जाकर शीघ्र नहीं आता है तो मनुष्य मनमें व्याकुल होता हुआ शिरको बार बार पीटकर रोता है । वही मनुष्य अन्य मृग आदि प्राणियोंके मांसको काटकर अपने मुखको फाड़ता हुआ खाता है । हे कलिकाल ! यहां हम लोग तेरी इन विचित्र प्रवृत्तियोंसे निर्वेदको प्राप्त हुए हैं ॥ विशेषार्थ - जब अपना कोई इष्ट बन्धु कार्यवश कहीं बाहिर जाता है और यदि वह समयपर घर वापिस नहीं आता है तब यह मनुष्य अनिष्टकी आशंकासे व्याकुल होकर शिरको दीवाल आदिसे मारता हुआ रुदन करता है । फिर वही मनुष्य जो अन्य पशु-पक्षियोंको मारकर उनका अपनी माता आदिसे सदाके लिये वियोग कराता हुआ मांसभक्षण में अनुरक्त होता है, यह इस कलिकालका ही प्रभाव है । कालकी ऐसी प्रवृत्तियोंसे विवेकी जनोंका विरक्त होना स्वाभाविक है ॥ २० ॥ जो मद्य इस जन्म में समस्त पुरुषार्थों ( धर्म, अर्थ और काम ) का नाश करनेवाला है और आगेके जन्ममें अत्यधिक दुःखका कारण है उस मद्यको यदि बुद्धिमान् मनुष्य नहीं छोड़ते हैं तो फिर यहां लोकमें धर्मके निमित्त अपने लिये हितकारक दूसरा कौन-सा काम करनेके योग्य है ? कोई नहीं । अर्थात् मद्यपायी मनुष्य ऐसा कोई भी पुण्य कार्य नहीं कर सकता है जो उसके लिये आत्महितकारक हो । विशेषार्थ - शराबी मनुष्य न तो धर्मकार्य कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, और न यथेच्छ भोग भी भोग सकता है; इस प्रकार वह इस भवमें तीनों पुरुषार्थोंसे रहित होता है । तथा परभवमें वह मद्यजनित दोषोंसे नरकादि दुर्गतियोंमें पड़कर असह्य दुखको भी भोगता है । इसी विचारसे बुद्धिमान् मनुष्य उसका सदाके लिये परित्याग करते हैं ॥२१॥ मद्यपायी जन निर्लज्ज होकर यहां जो माताको पत्नी समझ कर निन्दनीय चेष्टायें ( सम्भोग आदि ) करते हैं
१ क मूर्खलोकैः । २ भ क सकलानि यानि पुरुषधर्माणि तेषाम् । ३ श विषयकरणशीलम् । ४श मद्यं न ।