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श्लोक
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परसे मित्र बारमतत्वका विचार व उसका फल १५४-६१ गुरुका उपदेश दिव्य अमृतके समान है। योग- पथिकोंका स्वरूप व उनको नमस्कार उस धर्मका वर्णन केवली ही कर सकते हैं। यह धर्म - रसायन मिथ्यात्वादि बन्धकारणोंका
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परित्याग करनेपर ही प्राप्त हो सकती है १६५ · मनुष्य पर्याय व उत्तम कुल आदि दुर्लभ हैं, फिर उनको पाकर भी धर्म न करना मूर्खता है १६६-६९ शरीरको स्वस्थ व आयुको दीर्घ समझकर भविष्यमें धर्म चरणका विचार करना नितान्त जड़ता है
erature साथ प्रायः तृष्णा भी बढ़ती ही है। परिवर्तनशील संसारमें जीवित और धन भादिकी नश्वरता मृत्युके अनिवार्य होनेपर विवेकी जन उसके लिये शोक नहीं करते हैं
धर्मका फळ
धर्मकी रक्षा ही आत्मरक्षा सम्भव है धर्मकी महिमा
प्रकरणके अन्तमें ग्रन्थकारकी गुरुसे वरयाचना धर्मोपदेशामृत पान के लिये प्रेरणा
२. दानोपदेशन
व्रत-तीर्थ प्रवर्तक आदि जितेन्द्र और दानतीर्थके प्रवर्तक श्रेयांस राजाका कारण श्रेयांस राजाकी प्रशंसा
विषय-सूची
१७३-७६
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१७१-७२ | दानसे रहित दिन पुत्रके मरणदिनसे भी बुरा है २९ धर्मके निमित्त होनेवाले सब विकरूप दानसे ही सफल होते हैं
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१७८-८१
१८२-८३
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दानके बिना भी अपनेको दानी प्रगट करनेवाला महान् दुखका पात्र होता है अपनी सम्पत्तिके अनुसार गृहस्थको थोड़ा न थोड़ा दान देना ही चाहिये १८४ - ९६ | दानकी अनुमोदनाले मिथ्यादृष्टि पशु भी उत्तम भोगभूमिको प्राप्त करता है दानसे रहित मनुष्यकी भविवेकताके उदाहरण जो धन दानके उपयोगमें आता है वही धन वस्तुतः जपना है ३७ धनका क्षय पुण्यके क्षयसे होता है, न कि दानसे ३८ लोभ सब ही उत्तम गुणोंका घातक है। ३९ दानसे जिसकी कीर्तिका प्रसार नहीं हुआ वह जीवित रहकर भी मृतके समान है। मनुष्यभवकी सफलता दानमें है, अन्यथा उदरको पूर्ण तो कुत्ता भी करता है
१-५४, पृ. ७८
कोभी जीवों के उद्धारार्थ दानोपदेशकी प्रतिज्ञा सत्पात्रदान मोहको नष्ट करके मनुष्यको सद्गृहस्थ बनाता है
घनकी सफलता दानमें है
सत्पात्रदानसे द्वन्य वटबीजके समान बढ़ता ही है ८ भक्ति से दिया गया दान दाता और पात्र दोनों के लिये हितकर होता है
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दानकी महिमा सत्पात्रदानके 'विना गृहस्थ जीवन निष्फल है।
9 २-३
४
१७७
७
५-६
९-१६
१७
छोक
૩.
१९
२०
२१-२२
दानके बिना विभूतिकी निष्फलता के उदाहरण दान वशीकरण मंत्रके समान है दानजनित पुण्यकी राजलक्ष्मीसे तुलना दानके विना मनुष्यभवकी विफलता दानसे रहित विभूतिकी अपेक्षा तो निर्धनता ही श्रेष्ठ है
२३ २४-२५
दानके विना गृहस्थाश्रमकी व्यर्थता सत्पात्रदान परलोकयात्रामें नाश्ताके समान है २६ दानका संकल्प मात्र भी पुण्यवर्धक है।
२७
पात्र के आनेपर दानादिसे उसका सम्मान न करना अशिष्टता है
दानको छोड़कर अन्य प्रकारसे किया जानेवाला ater उपयोग कष्टकारक है
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३२
५३
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३४-३६
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प्राणी के साथ परलोकमें धर्म ही जाता है, न कि धन ४३ सब अभीष्ट सामग्री पात्रदानसे ही प्राप्त होती है ४४ जो व्यक्ति धनके संचय व पुत्रविवाहादिको लक्ष्य में रखकर भविष्य में दानकी भावना रखता है उसके समान मूर्ख दूसरा नहीं है ४५