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पचनन्दि-पञ्चविंशतिः
मुनियोंकी पूजा जिनागमे और जिनकी पूजाके | अतीन्द्रिय मामाके सम्बन्धमें कुछ कहनेकी ही समान फलप्रद है।
प्रतिज्ञा तीर्थका स्वरूप
| शृंगारादिप्रधान काग्य और उनकी रचना करनेवाले रत्नत्रयधारक मुनिका तिरस्कार करनेवाले नरकके
कवियोंकी निन्दा
""-३ पात्र होते हैं
नीशरीरका स्वरूप
१४-१५ मुनियोंकी स्तुति असम्भव है
सीकी मयंकरता व्यवहार सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप व उन तीनोंके
| मोहकी महिमाको दिखलाकर उसके स्वागका विना मुक्तिकी भसम्भावना .२-७६
उपदेश
१९-२३ सम्यग्दर्शनके विना ज्ञान और चरित्र मिथ्या कहे | वीतराग व सर्वज्ञ भाप्तका ही वचन प्रमाण हो जाते हैं
सकता है, उसके वचनमें सन्देह करना रत्नत्रयप्रशंसा
मूर्खता है
१२१-२५ उक्त सम्यग्दर्शनादि भात्मस्वरूप है
भनेक भेद-प्रभेदरूप समस्त श्रुतमें मात्माको ही शुद्धनयका मात्मतत्त्व भखण्ड है
उपादेय कहा गया है
१२६-२. निश्चय सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप
परोक्ष पदार्थके विषयमें जिनवचनको प्रमाण उत्तम क्षमाका स्वरूप
___ मानना चाहिये क्रोध मुनिधर्मका विघातक है
शानकी महिमा
१२९-३. क्रोधके कारणोंके उपस्थित होनेपर मुनिजन
मर्थपरिज्ञानकी कारण जिनवाणी है क्या विचार करते हैं
आरमाका ही नाम धर्म है मार्दव धर्मका स्वरूप
८७-८८
माध्यमिक मादि अन्य वादियोंके द्वारा कल्पित मार्जव धर्मका स्वरूप
८९-९० मात्माके स्वरूपका निर्देश करके उसके सत्य वचनका स्वरूप व उसकी उपादेयता ९१-९१ यथार्थ स्वरूपका दिग्दर्शन
१३. शौच धर्मका स्वरूप व माझ शौचकी
मात्माके अतिस्वकी सिदि भकिंचित्करता
९४-९५०
मन्य वादियों के द्वारा परिकल्पित मारमाके संयमका स्वरूप व उसकी उपादेयता ९६-९७ व्यापकत्व भादिका निराकरण १३० तपका स्वरूप व उसकी उपादेयता ९८-१०. मात्माका कर्तृत्व और भोकृत्व
१३८ त्याग व आकिंचन्यका स्वरूप
| उस मारमाके स्वरूपको नय-प्रमाणादिके माश्रयसे मुनियोंकी दुर्लभता
ग्रहण करना चाहिये ममत्वके मभावमें शरीर व शाम भादिको
राग-द्वेषके परित्यागका उपदेश
१४०-४५ परिग्रह नहीं कहा जा सकता
परमात्मा इसी शरीरके भीतर स्थित है १४६ प्रयचर्यका स्वरूप व उसके धारकोंकी प्रशंसा १०४-५ | पर पदार्थों में इष्टानिष्ट कल्पनाका निषेध ये दस धर्म मोक्ष-महलपर चढनेके लिये नसैनीके तत्त्ववित् कौन है
१५० पादस्थानोंके समान हैं १०६ सुख-दुखका अविवेक
१५१ स्वास्थ्यका स्वरूप
मात्माको परसे भिन्न समझना, यही समस्त चिद्रूपका स्वरूप
उपदेशका रहस्य है मुक्तिका स्वरूप
१०९ योगीका स्वरूप
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