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प्रस्तावना
५. यतिभावनाष्टक- इस अधिकारमें ९ श्लोक हैं। यहां उन मुनियोंकी स्तुति की गई है जो पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगोंसे विरक्त होते हुए ऋतुविशेषके अनुसार अनेक प्रकारके कष्टको सहते हैं और भयानक उपसर्गके उपस्थित होनेपर भी कभी समाधिसे विचलित नहीं होते।
६. उपासकसंस्कार- इस अधिकारमें ६२ श्लोक हैं। यहां सर्वप्रथम व्रत और दानके प्रथम प्रवर्तक आदि जिनेन्द्र और राजा श्रेयांसके द्वारा धर्मकी स्थितिको दिखलाकर उसका स्वरूप बतलाया है । पश्चात् सम्पूर्ण और देशके भेदसे दो भेदरूप उस धर्मके स्वामियोंका निर्देश किया है। उनमें देशतः उस धर्मको धारण करनेवाले श्रावकोंके ये छह कर्म आवश्यक बतलाये गये हैं- देवपूजा, निम्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान (७) । तत्पश्चात् सामायिक व्रतके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए उसके लिये सात व्यसनोंका परित्याग अनिवार्य निर्दिष्ट किया गया है (९)।
आगे यथाक्रमसे (१४-१७, १८-१९, २०-२१, २२-२५, २५-३०, ३१-३६) गृहस्थके उन देवपूजा आदि छह आवश्यकोंका विवेचन करके जीवदया ( ३७-४१) की आवश्यकता दिखलायी गई है । तत्पश्चात् कर्मक्षयकी कारण होनेसे बारह अनुप्रेक्षाओंके स्वरूपको बतलाकर उनके निरन्तर चिन्तनकी प्रेरणा की गई है ( ४२-५८) । अन्तमें जो उत्तमक्षमादिरूप दस धर्म. मुनियोंके लिये निर्दिष्ट किये गये हैं उनका सेवन यथाशक्ति आगमोक्त विधिसे श्रावकोंको मी करना चाहिये, यह निर्देश करते हुए विशुद्ध आत्मा और जीवदया इन दोनों के संमेलनको मोक्षका कारण बतलाकर इस अधिकारको पूर्ण किया गया है ।
७. देशव्रतोद्योतन-इस अधिकारमें २७ श्लोक हैं । यहां अनेक मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षा एक सम्यग्दृष्टिको प्रशंसाका पात्र बतलाया है तथा उस सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्यभवके प्राप्त हो जानेपर तपको ग्रहण करनेकी ही प्रेरणा की है। यदि कदाचित् कुटुम्ब आदिके मोह अथवा अशक्तिके कारण उस तपका अनुष्ठान करना सम्भव न हो तो फिर सम्यग्दर्शनके साथ छह आवश्यकों, आठ मूल्यगुणों व पांच अणुव्रतादिरूप बारह उत्तरगुणोंको तो धारण करना ही चाहिये । साथ ही रात्रिभोजनका परित्याग करते हुए पवित्र व योग्य वस्त्रसे छाने गये जलका पीना तथा शक्तिके अनुसार मौन आदि अन्य नियमोंका पालन करना भी श्रावकके लिये पुण्यका वर्धक है (४-६)। चूंकि श्रावक अनेक पापप्रचुर कार्योंको करके धनका उपार्जन करता है, अत एव इस पापसे मुक्त होनेके लिये उसके लिये दानकी आवश्यकता और उसके महत्त्वको दिखलाकर सत्पात्रके लिये आहारादिरूप चार प्रकारके दानकी विशेष प्रेरणा की गई है (७-१७)।
श्रावकके छह आवश्यकोंमें देवदर्शन व पूजन प्रथम है । देवदर्शनादिके विना उस गृहस्थाश्रमको पत्थरकी नाव जैसा निर्दिष्ट किया गया है (१८)। इसके लिये चैत्यालयका निर्मापण अतिशय पुण्यवर्धक है। कारण यह कि उस चैत्यालयके सहारे मुनि और श्रावक दोनोंका ही धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इन चार पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है । यदि धर्म पुरुषार्थ उस मोक्षके साधक रूपमें अनुष्ठित होता है तो वह भी उपादेय है । इसके विपरीत यदि वह भोगादिककी अभिलाषासे किया जाता है तो वह धर्म पुरुषार्थ भी पापरूप ही है । कारण यह कि अणुव्रत या महाव्रत दोनोंका ही उद्देश एक मात्र मोक्षकी प्राप्ति है, इसके विना वे भी दुखके ही कारण हैं ( २५-२६)।