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पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः
और फिर प्रभातके हो जानेपर पुनः अनेक दिशाओंमें चले जाते हैं उसी प्रकार प्राणी अनेक योनियोंसे
आकर विभिन्न कुलोंमें उत्पन्न होते हैं और फिर जाते हैं । ऐसी अवस्थामें उनके लिये शोक करना विशेषताओं के द्वारा मृत्युकी अनिवार्यता और अन्य यहां इष्टवियोगमें शोक न करनेका उपदेश दिया गया है ।
आयुके समाप्त होनेपर उन कुलोंसे अन्य कुलोंमें चले अज्ञानताका द्योतक है ( १६ ) । इस प्रकारसे अनेक सभी चेतन-अचेतन पदार्थोंकी अस्थिरताको दिखलाकर
४. एकत्वसप्तति — इस अधिकारमें ८० श्लोक हैं। यहां चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार कर यह बतलाया है कि वह चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण अधिकतर प्राणी उसे जानते नहीं हैं । इसीलिये वे उसे बाह्य पदार्थोंमें खोजते हैं । जिस प्रकार अधिकतर प्राणी लकड़ीमें अव्यक्त स्वरूपसे अवस्थित अग्निको नहीं ग्रहण कर पाते उसी प्रकार कितने ही प्राणी अनेक शास्त्रोंमें उलझकर उसे नहीं प्राप्त कर पाते। वह चेतन तत्त्व अनेक धर्मात्मक है । परन्तु कितने ही मन्दबुद्धि उसे जात्यन्धहस्ती न्यायके अनुसार एकान्तरूपसे ग्रहण करके अपना अहि करते हैं । कुछ मनुष्य उसको जान करके भी अभिमानके वशीभूत होकर उसका आश्रय नहीं लेते हैं । जो धर्म वास्तव प्राणीको दुखसे बचानेवाला है उसे दुर्बुद्धि जनोंने अन्यथा कर दिया है । इसीलिये विवेकी जीवोंको उसे परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये (१-९ ) जो योगी शरीर व कर्मसे पृथक् उस ज्ञानानन्दमय परब्रह्मको जान लेता है वही उस स्वरूपको प्राप्त करता है । जीवका राग-द्वेष के अनुसार जो किसी पर पदार्थसे सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण है; तथा समस्त बाह्य पदार्थोंसे भिन्न एक मात्र आत्मस्वरूपमें जो अवस्थान होता है, यह मुक्तिका कारण है । बन्ध-मोक्ष, राग-द्वेष, कर्म - आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो द्वैत ( दो पदार्थोंके आश्रित ) बुद्धि होती है उससे संसारमें परिभ्रमण होता है, तथा इसके विपरीत अद्वैत ( एकत्व) बुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है । शुद्ध निश्चयनयके आश्रित इस अद्वैत बुद्धिमें एक मात्र अखण्ड आत्मा प्रतिभासित होता है । उसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी भेद प्रतिभासित नहीं होता । और तो क्या, उस अवस्थामें तो 'जो शुद्ध चैतन्य है वही निश्चयसे मैं हूँ' इस प्रकारका भी विकल्प नहीं होता । मुमुक्षु योगी मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली मोक्षविषयक इच्छाको भी उसकी प्राप्तिमें बाधक मानते हैं । फिर भला वे किसी अन्य बाह्य पदार्थकी अभिलाषा करें, यह सर्वथा असम्भव है ( ५२-५३ ) ।
जिनेन्द्र देवने उस परमात्मतत्त्वकी उपासनाका उपाय एक मात्र साम्यको बतलाया है । स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग; ये सब उसी साम्यके नामान्तर हैं । एक मात्र शुद्ध चैतन्यको छोड़कर आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं रहना; इसका नाम साम्य है ( ६३-६५ ) । आगे इस साम्यका और भी विवेचन करके यह निर्देश किया है कि कर्म और रागादिको हेय समझकर छोड़ देना चाहिये और उपयोगस्वरूप परंज्योतिको उपादेय समझकर ग्रहण करना चाहिये ( ७५ ) । अन्तमें इस आत्मतत्त्वके अभ्यासका फल शाश्वतिक मोक्षकी प्राप्ति बतलाकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है ।
१. दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसन्ति नगे नगे । स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे ॥ इष्टोपदेश ९.