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पभनन्दि-पञ्चविंशतिः ५. पद्मनन्दि-पंचविंशतिकी संस्कृत टीका प्रस्तुत ग्रन्थके साथ जो संस्कृत टीका प्रकाशित की गई है उसके रचयिताका कहीं नामनिर्देश नहीं है। इससे यह ज्ञात नहीं होता कि उसकी रचना कब और किसके द्वारा की गई है । उसके रचयिता किस प्रदेशके रहनेवाले थे, मुनि थे या गृहस्थ, तथा किसके शिष्य व किस परम्पराके थे; इत्यादि बातोंके जाननेका कोई उपाय नहीं है । इतना अवश्य है कि टीकाका जो स्वरूप है उसको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता गणनीय विद्वान् नहीं थे। उनकी यह टीका बहुत साधारण है । उससे मूल श्लोकोंका न तो अर्थ ही स्पष्ट होता है और न भाव भी । उसमें जहां तहां केवल कुछ ही शब्दोंका, विशेषतः सरल शब्दोंका, अर्थ मात्र व्यक्त किया है । उदाहरणार्थ निम्न श्लोक और उसकी टीकाको देखिये
रजकशिलासहशीमिः कुकुरकर्परसमानचरिताभिः ।
गणिकाभिर्यदि संगः कृतमिह परलोकवार्ताभिः ॥ १-२४ ॥ इह लोके संसारे । यदि चेत् । गणिकाभिः वेश्याभिः । संगः कृतः तदा परलोकवार्ताभिः कृतं पूर्यतां पूर्णम् (!) । किंलक्षणाभिः वेश्यामिः । रजकशिलासदृशीभिः कुर्कुरकर्परसमानचरिताभिः ॥ २४ ॥
इस प्रकार उक्त श्लोककी टीकामें केवल 'इह' का अर्थ 'लोके संसारे', 'यदि' का अर्थ 'चेत्' और 'गणिकाभिः' का अर्थ 'वेश्याभिः' मात्र किया गया है । इसके अतिरिक्त उसके शब्दार्थ और भावार्थको कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। ___इसके आगे २७वें श्लोकका यह अन्तिम चरण है- नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झविधौ लोकाः कुतो मुह्यत ।। ____ इसका टीककार अर्थ करते हैं- भो लोकाः । नित्यं सदा । वञ्चनहिंसनोज्झविधौ । कुतो मुह्यत करमान्मोहं गच्छत।
इस प्रकारसे उसका भाव कुछ भी स्पष्ट नहीं होता है । यहां ये एक दो ही उदाहरण दिये गये हैं । वस्तुतः प्रस्तुत टीकाकी प्रायः सर्वत्र यही स्थिति है।
इसके अतिरिक्त इस टीकामें जहां तहां अर्थकी असंगति भी देखी जाती है। जैसे-श्लोक १-७५ में 'अश्रद्दधानः' पदका अर्थ 'आलस्यसहितः'; १-१०४ में 'मृत्पिण्डीभूतभूतम्' का अर्थ 'मृतप्राणिपिण्डसदृशम्'; १-१०९ में 'याति' का अर्थ 'यातिर्गमनं न', इसी श्लोकमें 'मृतः' का अर्थ 'मरणं न', 'जरा जर्जरा जाता' का अर्थ 'यत्र मुक्तौ जरा न यत्र मुक्तौ जरया कृत्वा जर्जराः सिद्धाः न'; १-११८ में 'आस्थाय' का अर्थ "खित्वा'; इसीमें 'न विदः का अर्थ 'क्वापि वयं न विदः'; तथा श्लोक १-१३७ में 'भूतानन्वयतो न भूतजनितो' का अर्थ 'अन्वयतः निश्चयतः । आत्मा भूतो न इन्द्रियरूपो न पृथिव्यादिजनितो न भूतजनितो न' और 'कथमपि अर्थक्रिया न युज्यते' का अर्थ 'उत्पादव्ययधौव्यत्रयात्मिका क्रिया न युज्यते । अपि तु सर्वेषु द्रव्येषु ध्रौव्यव्ययोत्पादक्रिया युज्यते' । इस श्लोकका भाव टीकाकारको सर्वथा हृदयंगम नहीं हुआ है।
टीकाकार संस्कृत भाषाके साथ ही सिद्धान्तके भी कितने ज्ञाता थे, इसका अनुमान 'लब्धिपञ्चकसामग्री' आदि श्लोक (१-१२) की टीकाको देखकर भली भांति किया जा सकता है।