________________
प्रस्तावना
इसका और उक्त श्लोकके पूर्वार्धका न केवल भाव ही समान है, बल्कि शब्द भी समान हैं।
पद्मनन्दी और शुभचन्द्र- शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवमें जैन धर्म और सिद्धान्त संबंधी प्रायः सभी विषयोंका विशद प्ररूपण पाया जाता है। इसकी अनित्यभावनाका वर्णन प्रस्तुत ग्रंथके अनित्यपश्चाशत्से तुलनीय है । विशेषतः ज्ञाना० अनित्यभा. के पद्य ३०-३१ का प्रस्तुत अनित्यपञ्चाशतके पद्य १६ से साम्य ध्यान देने योग्य है। ज्ञानार्णवके उक्त दोनों पद्य आचार्य पूज्यपाद विरचित इष्टोपदेशके ९वें पद्यके आधारसे रचे गये प्रतीत होते हैं । ज्ञानार्णवका रचनाकाल लगभग १२वीं शती पाया जाता है।
पद्मनन्दी और श्रुतसागर सूरि-श्रुतसागर सूरिने दर्शनप्राभृत गा. ९ और मोक्षप्राभृत गा. १२ की टीकामें एकत्वसप्ततिके 'साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च' आदि श्लोक (६४) को उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने द. प्रा. गा. ३० की टीकामें धर्मोपदेशामृतके 'वनशिखिनि' आदि ७५वें श्लोकको तथा बोधप्राभृत गा. ५० की टीकामें एकत्वसप्ततिके ७९वें श्लोकको भी उद्धृत किया है ।
___ उन्होंने एक श्लोक ( मद्यमांससुरावेश्या-आदि) चारित्रप्राभृतकी २१वीं गाथाकी टीकामें उद्धृत किया है । वह श्लोक प्रस्तुत ग्रन्थके दो प्रकरणों (१-१६ व ६-१०) में पाया जाता है । भेद केवल इतना है यहां 'मद्य' शब्दके स्थानमें 'बूत' पद है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी भेद नहीं है। श्रुतसागर सूरि वि. सं. १६वीं सदीमें हुए हैं।
उक्त समस्त तुलनात्मक विवेचनका मथितार्थ यह है कि पञ्चविंशतिके ग्रंथकारने संभवतः कुन्दकुन्द, उमास्वाति, पूज्यपाद, अकलंक, गुणभद्र, मानतुंग, कुमुदचन्द्र, सोमदेवसूरि, अमृतचन्द्रसूरि और अमितगतिकी रचनाओंका उपयोग किया है । इनमें समयकी दृष्टिसे सबसे पीछेके आचार्य अमितगति हैं, जिनके ग्रंथोंमें सबसे पिछला कालनिर्देश वि. सं. १०७३ का पाया जाता है। अत एव पं. वि. का रचनाकाल इससे पश्चात् होना चाहिये । तथा जिन ग्रंथों में इस रचनाके किसी प्रकरणका स्पष्ट उल्लेख व अवतरण पाया जाता है उनमें सबसे प्रथम पद्मप्रभ मलधारी देव कृत नियमसारकी टीका है । इन मलधारी देवके स्वर्गवासका काल वि. सं. १२४२ पाया जाता है । अत एव सिद्ध होता है कि पंचविंशतिकार पद्मनन्दी वि. सं. १०७३ और १२४२ के बीचमें कभी हुए हैं। इस सीमाको और भी संकुचित करनेमें सहायक एकत्वसप्ततिकी कन्नड टीका है जिसका परिचय अन्यत्र दिया जा रहा है और जो वि. सं. ११९३ के आसपास लिखी गई थी। अत एव पंचविंशतिकार पद्मनन्दीका काल वि. सं. १०७३ और ११९३ के बीच सिद्ध होता है । यह भी असंभव नहीं कि मूलग्रंथ और एकत्वसप्ततिकी कन्नड टीकाके रचयिता पद्मनन्दी एक ही हों । किन्तु इसका पूर्णतः निर्णय कुछ और स्पष्ट प्रमाणोंकी अपेक्षा रखता है।
१. इसी प्रकार शांतिनाथस्तोत्रके प्रथम और द्वितीय तथा सरस्वतीस्तोत्रके ३१वें श्लोककी भी कल्याणमंदिरके २६, २५ और दूसरे श्लोकसे कुछ समानता दिखती है । २. तत्त्वार्थवार्तिक (१,१,४९) और यशस्तिलक (उ. पृ. २७१ ) में यह एक लोक उद्धृत किया गया है
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिना क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पङ्गुलः ॥ धर्मोपदेशामृतके उस श्लोक ( 'वनशिखिनि मृतोऽन्यः' आदि ) में भी यही भाव निहित है।