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प्रस्तावना
८. प्रभाचन्द्रके शिष्य पद्मनन्दीकी बड़ी प्रशंसा देवगढके वि. सं. १४७१ के शिलालेखमें पाई जाती है । (रा. मित्र. ज. ए. सो. बं. ५२ पृ. ६७-८० ).
स्पष्ट है कि उपर्युक्त पद्मनन्दी नामधारी आचार्यों में से कोई भी ऐसा नही है जो प्रस्तुत ग्रंथके कर्ता वीरनन्दीके शिष्य पद्मनन्दी मुनिसे अभिन्न स्वीकार किया जा सके । अत एव प्रस्तुत ग्रंथकर्ताके कालादिका निर्णय हमें उनकी रचनाके आधारपर ही बाह्य व आभ्यन्तर प्रमाणोंपरसे करना है ।
४. ग्रन्थकारका काल-निर्णय
प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता श्री मुनि पद्मनन्दी कब हुए, इसका ठीक ठीक निश्चय करना कठिन है । तथापि उनकी इन कृतियोंका उनसे पूर्व और पश्चात्कालीन ग्रन्थकारोंकी कृतियोंके साथ मिलान करनेसे उनके समय की सीमाओंका कुछ निर्धारण किया जाता है -
पद्मनन्दी और गुणभद्र - जब हम तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करते हैं तब हमें उनकी इन कृतियोंपर आचार्य गुणभद्रकी रचनाका प्रभाव दिखाई देता है । उदाहरणार्थ गुणभद्र स्वामीने अपने आत्मानुशासनमें मनुष्य पर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए उसे ही तपका साधन निर्दिष्ट किया है
. दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः ।
मनुष्यमिव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥ १११ ॥
इसका प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत ( १२-२१ ) निम्न पद्यसे मिलान कीजिये -
दुष्प्रापं बहुदुः खरा शिरशुचि स्तोकायुरल्पज्ञताज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे । अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तत्रैव साक्षात्सुखं सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुर्यान्नरो निर्मलम् ॥
आत्मानुशासनके उपर्युक्त श्लोकमें मनुष्य पर्यायके लिये ये पांच विशेषण दिये गये हैं- दुर्लभ, अशुद्ध, अपसुख, अविदितमृतिसमय और अल्पपरमायु । ठीक उसी अभिप्रायको सूचित करनेवाले वैसे ही पांच विशेषण पञ्चविंशतिके इस श्लोक में भी दिये गये हैं- दुष्प्राप, अशुचि, बहुदुःखराशि, अल्पज्ञताज्ञातप्रान्तदिन और स्तोकाय । वहां गुणभद्र स्वामीने यह कहा है कि मुक्तिकी प्राप्ति तपसे होती है और वह तप इस मनुष्य पर्यायमें ही होता है, अतः उस मनुष्य पर्यायको पाकर तप करना चाहिये । यही यहां पद्मनन्दीने भी कहा है कि साक्षात् सुख मुक्तिमें है, उस मुक्तिकी प्राप्ति तपसे होती है, और वह तप इस मनुष्य पर्यायमें ही सम्भव है; यह सोचकर सुखार्थी मनुष्यको निर्मल तप करना चाहिये । इस प्रकार दोनों लोकों में कुछ शब्दभेदके होनेपर भी अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है ' ।
उन गुणभद्रका समय प्रायः शक सं. की ८वीं सदीका उत्तरार्ध (वि. सं. ९वीं सदीका अन्त और १०वींका पूर्वार्ध ) है । अत एव उनकी कृतिका उपयोग करनेवाले श्रीमुनि पद्मनन्दी वि. की १०वीं सदीके पूर्व नहीं हो सकते हैं ।
१. इसके अतिरिक्त प.प.विं. के ९-१८, १४९, १ - ७६, १ - ११८ ( ३-३४ भी), ३-४४ और ३-५१ न श्लोका क्रमसे आत्मानुशासनके इन श्लोकों से मिलान कीजिये -- २३९ - ४०, १२५, १५, १३०, ३४, ७९.