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प्रस्तावना आदि पदोंकी समानताको देखते हुए यही प्रतीत होता है कि वह जिनदर्शनस्तवन भी प्रकृत पद्मनन्दी मुनिके द्वारा ही रचा गया है । इससे तो यही विदित होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थकारका जैसे संस्कृतभाषापर अबाधित अधिकार था वैसे ही उनका प्राकृत भाषाके ऊपर भी पूरा अधिकार था।
मनि पद्मनन्दी और उनका व्यक्तित्व- पूर्व विवेचनसे यह सिद्ध हो चुका है कि प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत सब ही प्रकरणोंके रचयिता एक ही मुनि पद्मनन्दी है। उन्होंने प्रायः सभी प्रकरणों में केवल अपने नाम मात्रका ही निर्देश किया है, इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया । इतना अवश्य है कि उन्होंने दो स्थलोंपर (१-१९७, २-५४) 'वीरनन्दी' इस नामोल्लेखके साथ अपने गुरुके प्रति कृतज्ञताका भाव दिखलाते हुए अतिशय भक्ति प्रदर्शित की है। इसके अतिरिक्त नामनिर्देशके विना तो उन्होंने अनेक स्थानोंमें गुरुस्वरूपसे उनका स्मरण करते हुए उनके प्रति अतिशय श्रद्धाका भाव व्यक्त किया है। जैसा कि उन्होंने परमार्थविंशतिमें व्यक्त किया है,' श्रीवीरनन्दी उनके दीक्षागुरु प्रतीत होते हैं । सम्भव है ये ही उनके विद्यागुरु भी रहे हों। यह सम्भावना उनके निम्न उल्लेखके आधारसे की जा रही है
रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद-पद्मद्वयस्मरणसंजनितप्रभावः ।
श्रीपमनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदानपञ्चाशतं ललितवर्णचयं चकार ॥२-५४ ॥ ___ यहां दानपञ्चाशत् प्रकरणको समाप्त करते हुए मुनि पद्मनन्दीने यह भाव व्यक्त किया है कि मैंने जो यह बावन श्लोकमय सुन्दर प्रकरण रचा है वह रत्नत्रयसे विभूषित श्रीवीरनन्दी आचार्यके चरण-कमलोंके स्मरणजनित प्रभावसे ही रचा है- अन्यथा मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं था । इस उल्लेखमें जो उन्होंने 'स्मरण' पदका प्रयोग किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकरणकी रचनाके समय आचार्य वीरनन्दी उनके समीप नहीं थे- उस समय उनका स्वर्गवास हो चुका था।
मुनि पद्मनन्दीके द्वारा विरचित इन कृतियोंके पढ़नेसे ज्ञात होता है कि वे मुनिधर्मका दृढ़तासे पालन करते थे। वे मूलगुणोंके परिपालनमें थोड़ी-सी मी शिथिलताको नहीं सह सकते थे (१-४०)। उनके लिये दिगम्बरत्वमें विशेष अनुराग ही नहीं था, बल्कि वे उसे संयमका एक आवश्यक अंग मानते ये (१-४१)। प्रमादके परिहारार्थ उन्हें एकान्तवास अधिक प्रिय था (१-४६)। वे अध्यात्मके विशेष प्रेमी थे- आत्मज्ञानके विना उन्हें कोरा कायक्लेश पसन्द नहीं था (१-६७) उनकी अधिकांश कृतियां- जैसे एकत्वसप्तति, आलोचना, सद्बोधचन्द्रोदय, निश्चयपञ्चाशत् और परमार्थविंशति- अध्यात्मसे ही सम्बन्ध रखनेवाली हैं। वे व्यवहार नयको केवल मन्दबुद्धि जनोंके लिये अर्थावबोधका ही साधन मानते थे, उनकी दृष्टिमें मुक्तिमार्गका साधनभूत तो एक शुद्धनय (निश्चयनय ) ही था ( ११,८-१२)।
३. ग्रंथकारकी खोज प्रस्तुत ग्रंथके कर्ताका नाम पद्मनन्दी है । जैन साहित्यमें इस नामके अनेक ग्रंथकार हुए हैं। मूलसंघके आदि आचार्य कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दी भी था। जंबूदीव-पण्णत्तिके कर्ता पद्मनन्दीने अपनेको वीरनन्दीका प्रशिष्य तथा बलनन्दीका शिष्य कहा है तथा अपने विद्यागुरुका नाम श्रीविजय
१. देखिये पीछे पृ. २५ का टिप्पण नं.२. २. गुर्वविद्वयदत्तमुक्तिपदवीप्राप्त्यर्थनिम्रन्थताजातानन्दवशात् ॥२३-१६॥