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पन्ननन्दि-पञ्चविंशतिः रूपमें पीछे (१-१५४) आ चुका है। ये सब ऐसे हेतु हैं कि जिनसे पिछले प्रकरणोंके साथ इस प्रकरणकी समानकर्तृकताका अनुमान होता है।
शरीराष्टकका प्रथम श्लोक (दुर्गन्धाशुचि आदि ) पीछे अनित्यपञ्चाशत् (३-३ ) में आ चुका है। इसके अतिरिक्त गुरुभक्तिको प्रदर्शित करनेवाला वाक्य (मे हृदि गुरुवचनं चेदस्ति तत्तत्त्वदर्शि-५) यहां भी उपलब्ध होता है । इससे यह प्रकरण भी उक्त मुनि पद्मनन्दीके द्वारा ही रचा गया प्रतीत होता है।
अब ब्रह्मचर्याष्टक नामका अन्तिम प्रकरण ही शेष रहता है । सो यहां यद्यपि ग्रन्थकारने अपने नामका निर्देश तो नहीं किया है, फिर भी इस प्रकरणकी रचनाशैली पूर्व प्रकरणोंके ही समान है । इस प्रकरणका अन्तिम श्लोक यह है
युवतिसंगविवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजनं भणितं मया ।
सुरतरागसमुद्रगता जनाः कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि ॥ यहां पूर्व पद्धतिके समान ग्रन्थकारने 'युवतिसंगविवर्जन अष्टक (ब्रह्मचर्याष्टक)' के रचे जानेका उल्लेख किया है। साथमें उन्होंने अपने मुनिपदका निर्देश करके अपने ऊपर क्रोध न करनेके लिये विषयानुरागी जनोंसे प्रेरणा भी की है। यहां यह स्मरण रखनेकी बात है कि श्री पद्मनन्दीने कितने ही स्थलों में अपने नामके साथ 'मुनि' पदका प्रयोग किया है। इससे इस प्रकरणके भी उनके द्वारा रचे जानेमें कोई बाधा नहीं दिखती।
ग्रन्थके अन्तर्गत ऋषभस्तोत्र ( १३ ) और जिनदर्शनस्तवन (१४ ) ये दो प्रकरण ऐसे हैं जो प्राकृतमें रचे गये हैं। इससे किसीको यह शंका हो सकती है कि शायद ये दोनों प्रकरण किसी अन्य पद्मनन्दीके द्वारा रचे गये होंगे । परन्तु उनकी रचनापद्धति और भावभंगीको देखते हुए इस सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं दिखता । उदाहरणके लिये इस स्तोत्रमें यह गाथा आयी है
विप्पडिवज्जइ जो तुह गिराए मइ-सुइबलेण केवलिणो ।
वरदिट्ठिदिट्ठणहजतपक्खिगणणे वि सों अंधो ।। ३४ ॥ इसकी तुलना निम्न श्लोकसे कीजिये
यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिद्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या ।
खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥ १-१२५ ॥ इन दोनों पद्योंका अभिप्राय समान है, उसमें कुछ भी मेद नहीं है । इसीलिये भाषामेदके होनेपर भी इसे उन्हीं पद्मनन्दीके द्वारा रचा गया समझना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र ( २३-३४ ) में आठ प्रातिहार्योंके आश्रयसे जैसे भगवान् आदिनाथकी स्तुति की गई है वैसे ही शान्तिनाथ स्तोत्रमें उनके आश्रयसे शान्तिनाथ जिनेन्द्रकी भी स्तुति की गई है। ऋषभजिनस्तोत्रके 'जत्थ जिण ते वि जाया सुरगुरुपमुहा कई कुंठा (३६)' इस वाक्यकी समानता भी सरस्वतीस्तोत्रके निम्न वाक्यके साथ दर्शनीय हैकुण्ठास्तेऽपि बृहस्पतिप्रभृतयो यस्मिन् भवन्ति ध्रुवम् (१५-३१) । इसी प्रकार ऋषभस्तोत्रकी तीसरी गाथा और जिनदर्शनस्तवनकी सोलहवीं गाथाके 'चम्मच्छिणा वि दिट्टे' और 'चम्ममएणच्छिणा वि दि?'