________________
- 930 : २५-८ ]
२५. स्नानाष्टकम्
930) भव्या भूरिभवार्जितोदितमहद् ढमोह सर्पोल्लसन्मिथ्याबोधविषप्रसंगविकला मन्दीभवद्दृष्टयः । श्रीमत्पङ्कजनन्दिवक्त्रशशभृद्विम्प्रसूतं परं पीत्वा कर्णपुटैर्भवन्तु सुखिनः स्नानाष्टकाख्यामृतम् ॥ ८ ॥
तस्माद्वपुषः सकाशात् अन्यत्कष्टं किम् । प्राणिनाम् अन्यत् अशुभं किम् ॥ ७ ॥ भो भव्याः । नानाष्टकाख्यामृतं कर्णपुटैः पीखा सुखिनः भवन्तु । किंलक्षणा यूयम् । भूरिभवार्जित - उदित - महादृङ्मोह सर्प - उल्लसन्मिथ्याबोधविषप्रसंगेन विकलाः । मन्दीभवद्दृष्टयः । किंलक्षणम् अमृतम् । श्रीमत्पङ्कज-पद्मनन्दिवक्त्रशशभृत् - चन्द्रबिम्बात् प्रसूतम् ॥ परं श्रेष्टम् ॥ ८ ॥ इति स्नानाष्टकं समाप्तम् ॥ २५ ॥
२६७
है, अन्य कोई नहीं है ॥ ७ ॥ जो भव्य जीव अनेक जन्मोंमें उपार्जित होकर उदयको प्राप्त हुए ऐसे दर्शनमोहनीयरूप महासर्पसे प्रगट हुए मिथ्याज्ञानरूप विषके संसर्गसे व्याकुल हैं तथा इसी कारण से जिनकी सम्यग्दर्शनरूप दृष्टि अतिशय मन्द हो गई है वे भव्य जीव श्रीमान् पद्मनन्दी मुनिके मुखरूप चन्द्रबिम्बसे उत्पन्न हुए इस उत्कृष्ट 'खानाष्टक' नामक अमृतको कानोंसे पीकर सुखी होवें ॥ विशेषार्थ - यदि कभी किसी प्राणीको विषैला सर्प काट लेता है तो वह शरीरमें फैलनेवाले उसके विषसे अत्यन्त व्याकुल हो जाता है तथा उसकी दृष्टि ( निगाह ) मन्द पड़ जाती है । सौभाग्यसे यदि उस समय उसे चन्द्रबिम्ब से उत्पन्न अमृतकी प्राप्ति हो जाती है, तो वह उसे पीकर निर्विष होता हुआ पूर्व चेतनाको प्राप्त कर लेता है । ठीक इसी प्रकार जो प्राणी सर्पके समान अनेक भवोंमें उपार्जित दर्शनमोहनीयके उदयसे मिथ्याभावको प्राप्त हुए ज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) के द्वारा विवेकशून्य हो गये हैं तथा जिनका सम्यग्दर्शन मन्द पड़ गया है वे यदि पद्मनन्दी मुनिके द्वारा रचित इस ' स्नानाष्टक' प्रकरणको कानोंसे सुनेंगे तो उस अविवेक के नष्ट हो जानेसे वे अवश्य ही प्रबोधको प्राप्त हो जावेंगे, क्योंकि, यह स्नानाष्टक प्रकरण अमृतके समान सुख देनेवाला है || ८ || इस प्रकार स्नानाष्टक अधिकार समाप्त हुआ || २४ ॥
81
१ अ सशभृर्द्विन, च शशिभृद्भिव, व शशिभूबिंब । २ क भ श वक्रचन्द्र ।