________________
-926:२५-४]
२५. स्नानाष्टकम् मानस्योभयथेत्यभूद्विफलता ये कुर्वते तत्पुनस्
तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च ॥२॥ 925) चित्ते प्राग्भवकोटिसंचितरजःसंबन्धिताविर्भवन्
मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनकः स्नानं विवेकः सताम् । अन्यद्वारिकृतं तु जन्तुनिकरव्यापादनात्पापक
नो धर्मो न पवित्रता खलु ततः काये स्वभावाशुचौ ॥ ३ ॥ 926 ) सम्यग्बोधविशुद्धवारिणि लसत्सद्दर्शनोर्मिवजे
नित्यानन्दविशेषशैत्यसुभगे निःशेषपापद्रुहि । सत्तीर्थे परमात्मनामनि सदा स्नानं कुरुध्वं बुधाः शुद्ध्यर्थे किमु धावत त्रिपथगामालप्रयासाकुलाः ॥ ४॥
कदाचित् । नो अभ्येति न प्राप्नोति । इति हेतोः । स्नानस्य उभयथा द्विप्रकारम् । विफलता अभूत् । पुनः ये मुनयः तत् स्नानं कुर्वते तेषां यतीनां भूजलकीटकोटिहननात् तत्स्नानं पापाय रागाय च ॥२॥ सतां सत्पुरुषाणाम् । विवेकः स्नानम् । किंलक्षणः विवेकः । चित्ते मनसि । प्राग्भव-पूर्वपर्याय-कोटिसंचितरजःसंबन्धिताविर्भवन्मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनकः नाशकारकः विवेकः । तु पुनः। खलु इति निश्चितम् । स्वभावाशुचौ स्वभावात् अपवित्रे काये। अन्यद्वारिकृतं स्नानं जन्तुनिकरव्यापादनात् जन्तुसमूहविनाशनात् पापकृत् । ततः पापात् नो धर्मः । खलु निश्चितम् । स्वभावाशुचौ काये पवित्रता न ॥३॥ भो बुधाः त्रिपथगां गङ्गाम् । शुवर्थ किमु धावत आलप्रयासाकुलाः । भो भव्याः। परमात्मनामनि सत्तीर्थे स्नानं कुरुध्वम् । किंलक्षणे सत्तीर्थे । सम्यग्बोध एव शुद्धं जलं यत्र तत्तस्मिन् सम्यग्बोधविशुद्धवारिणि । पुनः किंलक्षणे परमात्मनामनि तीर्थे । लसत्सद्दर्शनोमिव्रजे । पुनः नित्यानन्द
कि निश्चय दृष्टिसे विचार करनेपर स्नानके द्वारा शरीर तो शुद्ध नहीं होता है, प्रत्युत जीवहिंसा एवं आरम्भ आदि ही उससे होता है। यही कारण है जो मुनियों के मूलगुणोंमें ही उसका निषेध किया गया है। परन्तु व्यवहारकी अपेक्षा वह अनावश्यक नहीं है, बल्कि गृहस्थके लिये वह आवश्यक भी है। कारण कि उसके विना शरीर तो मलिन रहता ही है, साथमें मन भी मलिन रहता है। विना स्नानके जिनपूजनादि शुभ कार्यों में प्रसन्नता भी नहीं रहती। हां, यह अवश्य है कि बाह्य शुद्धिके साथ ही आभ्यन्तर शुद्धिका भी ध्यान अवश्य रखना चाहिये । यदि अन्तरंगमें मद-मात्सर्यादि भाव हैं तो केवल यह बाह्य शुद्धि कार्यकारी नहीं होगी ॥ २ ॥ चित्तमें पूर्वके करोड़ों भवोंमें संचित हुए पाप कर्मरूप धूलिके सम्बन्धसे प्रगट होनेवाले मिथ्यात्व आदिरूप मलको नष्ट करनेवाली जो विवेकबुद्धि उत्पन्न होती है वही वास्तवमें साधु जनोंका स्नान है । इससे भिन्न जो जलकृत स्नान है वह प्राणिसमूहको पीडाजनक होनेसे पापको करनेवाला है । उससे न तो धर्म ही सम्भव है और न स्वभावसे अपवित्र शरीरकी पवित्रता भी सम्भव है ॥ ३ ॥ हे विद्वानो! जो परमात्मा नामक समीचीन तीर्थ सम्यग्ज्ञानरूप निर्मल जलसे परिपूर्ण है, शोभायमान सम्यग्दर्शनरूप लहरोंके समूहसे व्याप्त है, अविनश्वर आनन्दविशेषरूप ( अनन्तसुख ) शैत्यसे मनोहर है, तथा समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है; उसमें आप लोग निरन्तर स्नान करें । व्यर्थक परिश्रमसे व्याकुल होकर शुद्धिके लिये गंगाकी ओर क्यों दौड़ते हैं ? अर्थात् गंगा आदिमें स्नान करनेसे कुछ अन्तरंग शुद्धि नहीं हो सकती है, वह तो परमात्माके स्मरण एवं उसके स्वरूपके चिन्तन आदिसे ही हो सकती है, अत एव उसीमें अवगाहन
१श कोटिकीट । २ क शुद्ध जलम् ।
पद्मनं. ३४