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प्रस्तावना १ पद्मनन्दि - पश्चविंशति की प्रतियोंका परिचय हस्तलिखित प्रतियाँ-प्रस्तुत संस्करण निम्न हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे तैयार किया गया है।
१. 'क' प्रति- यह संस्कृत टीकासे युक्त प्रति स्थानीय श्राविका श्रमकी संचालिका श्री ब्र. सुमतीबाई शहाके संग्रह की है जो सम्भवतः भट्टारक श्री लक्ष्मीसेनजी कोल्हापुरकी हस्तलिखित प्रतिपरसे तैयार की गई थी । प्रस्तुत संस्करणके लिये प्रथम कापी इसी परसे तैयार की गई थी।
२. 'श' प्रति-यह प्रति स्थानीय विद्वान् श्री पं. जिनदासजी शास्त्रीकी है। इसकी लंबाई १३ इंच और चौड़ाई ५३ इंच है । पत्रसंख्या १-१७८ है। इसके प्रत्येक पत्रमें एक ओर लगभग १० -११ पंक्तियां और प्रति पंक्तिमें लगभग ४४ - ४५ अक्षर हैं । इसमें मूल श्लोक लाल स्याहीसे तथा संस्कृत टीका काली स्याहीसे लिखी गई है । इस प्रतिमें कहीं कहीं पीछेसे किसीके द्वारा संशोधन किया गया है । इससे उसका मूल पाठ इतना भ्रष्ट हो गया है कि वह अपने यथार्थ स्वरूपमें पढ़ा मी नहीं जाता है। इसमें ग्रन्थका प्रारम्भ ॥ उँ नमः सिद्धेभ्यः ।। इस मंगलवाक्यसे किया गया है। अन्तमें सामाप्तिसूचक निम्न वाक्य है
॥ इति ब्रह्मचर्याष्टकं ॥ इति श्रीमत्पद्मनंद्याचार्यविरचिता पद्मनंदिपंचविशतिः ॥ श्रीवीतरागार्पणमस्तु । श्रीजिनाय नमः ॥
प्रतिके प्रारम्भमें उसके दानका उल्लेख निम्न प्रकारसे किया गया है- आ पद्मनंदिपंचविंशति सटीक दोशी रतनबाई कोम नेमचंद न्याहालचंद ए श्रावक पासू गोपाल फडकुलेन दान कयूं छे संवत् १९५१ फागण वद्य ११ गुरुवार ।
३. 'अ' प्रति- यह प्रति सम्भवतः स्व. श्री पं. नाथूरामजी प्रेमी बम्बईकी रही है । इसकी लंबाई १११ और चौड़ाई ५३ इंच है। पत्रसंख्या १ - १७५ है। इसके प्रत्येक पत्रमें एक ओर १२ पंक्तियां और प्रतिपंक्तिमें ३५ - ३८ अक्षर हैं । ग्रन्थका प्रारम्भ ।। ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। इस वाक्यसे किया गया है। अन्तिम समाप्तिसूचक वाक्य है
ब्रह्मचर्याष्टकं समाप्तं इति पद्मनंदिकुंदकुंदाचार्यविरचित्तं संपूर्ण ॥ ___ इसमें 'युवतिसंगविवर्जनमष्टकं' आदि इस अन्तिम श्लोक और उसकी टीकाको किसी दूसरे लेखकके द्वारा छोटे अक्षरोंमें १७५वें पत्रके नीचे लिखा गया है। इससे पूर्वके श्लोकका 'भुक्तवतः कुशलं न अस्ति' इतना टीकांश भी यहांपर लिखा गया है। उपर्युक्त समाप्तिसूचक वाक्य भी यहींपर लिखा उपलब्ध होता है । इससे यह अनुमान होता है कि सम्भवतः उसका अन्तिम पत्र नष्ट हो गया था और इसीलिये उपर्युक्त अन्तिम अंशको किसीने दूसरी प्रतिके आधारसे १७५वें पत्रके नीचे लिख दिया है । आश्चर्य नहीं जो उस अन्तिम पत्रपर लेखकके नाम, स्थान और लेखनकालका भी निर्देश रहा हो। इस प्रतिका कागज इतना जीर्ण शीर्ण हो गया है कि उसके पत्रको उठाना और रखना भी कठिन हो गया है । वैसे तो इसके प्रायः सब ही पत्र कुछ न कुछ खंडित हैं, फिर भी ४० से १२६ पत्र तो वहुत त्रुटित हुए हैं। इसीलिये पाठभेद देनेमें उसका बहुत कम उपयोग हो सका है।