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-847 : १८५] १८. शान्तिनाथस्तोत्रम्
२३९ प्रोद्भूता हि सरस्वती सुरनुता विश्वं पुनाना यतः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥७॥ 846 ) लीलोद्वेलितबाहुकङ्कणरणत्कारप्रहृष्टैः सुरैः
चञ्चञ्चन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैश्चलच्चामरैः। नित्यं यः परिवीज्यते त्रिजगतां नाथस्तथाप्यस्पृहः
सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥८॥ 847 ) निःशेषश्रुतवोधवृद्धमतिभिः प्राज्यैरुदारैरपि
स्तोत्रंर्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः पारो न संप्राप्यते। भव्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविर्भक्त्या मयापि स्तुतः
सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥९॥ कुर्वाणा । पुनः किंलक्षणा वाणी। विस्तीणों। अखिलवस्तुतत्त्वकथनअपारप्रवाहेन उज्वला। पुनः किंलक्षणा वाणी। निःशेषार्थिनिषेविताः निःशेषयाचकैः सेविता । पुनः किंलक्षणा वाणी। अतिशिशिरा अतिशीतला । उत्तुगतः शैलात् हिमालयात् । उत्पन्ना गङ्गा इव ॥ ७॥ स श्रीशान्तिनाथः अस्मान् पातु रक्षतु । यः श्रीशान्तिनाथः। सुरैः देवैः । चामरैः। नित्यं सदैव । परिवीज्यते। किंलक्षणः सुरैः। लीलया उद्वेलितानि वाहुकङ्कणानि तेषां बाहकङ्कणानां रणत्कारेण प्रहृष्टैः हर्षितैः । किंलक्षणः चामरैः । चञ्च चन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैः चन्द्रकिरणसमानैः। त्रिजगतां नाथः तथापि अस्पृहः वाग्छारहितः ॥८॥. स श्रीशान्तिनाथः अस्मान् पातु रक्षतु । किंलक्षणः श्रीशान्तिनाथः। निरजनः । जिनपतिः । यस्य श्रीशान्तिनाथस्य । गुणार्णवस्य गुणसमद्रस्य । हरिभिः इन्द्रः। स्तोत्रैः कृत्वा पारः न संप्राप्यते। किंलक्षणैः इन्द्रः। निःशेषश्रुतबोधवृद्धमतिभिः द्वादशाङ्गेन पूर्णमतिभिः । किंलक्षणैः स्तोत्रैः । प्राज्यैः उदारैः । गम्भीरैः प्रचुरैः । स श्रीशान्तिनाथः भक्त्या कृत्वा । मया पद्मनन्दिना स्तुतः । किंलक्षणः स श्रीशान्तिनाथः । भव्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविः भव्यकमलप्रकाशन करविः सूर्यः ॥ ९॥ इति श्रीशान्तिनाथस्तोत्रम् ॥१८॥ सदा रक्षा करे ॥ विशेषार्थ-यहां भगवान् शान्तिनाथकी वाणीकी सरस्वती नदीसे तुलना करते हुए यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सरस्वती नदी अपार निर्मल जलप्रवाहसे संयुक्त है उसी प्रकार भगवान्की वाणी विस्तीर्ण समस्त पदार्थों के स्वरूपके कथनरूप प्रवाहसे संयुक्त है, जिस प्रकार स्नानादिके अभिलाषी जन उस नदीकी सेवा करते हैं उसी प्रकार तत्त्वके जिज्ञासु जन भगवान्की उस वाणीकी भी सेवा करते हैं, जिस प्रकार नदी गर्मी से पीड़ित प्राणियों को स्वभावसे शीतल करनेवाली होती है उसी प्रकार भगवान्की वह वाणी भी प्राणियोंके संसाररूप सन्तापको नष्ट करके उन्हें शीतल करनेवाली है, नदी यदि ऊंचे पर्वतसे उत्पन्न होती है तो वह वाणी भी पर्वतके समान गुणोंसे उन्नतिको प्राप्त हुए जिनेन्द्र भगवान्से उत्पन्न हुई है, यदि देव नदीकी स्तुति करते हैं तो वे भगवान्की उस वाणीकी भी स्तुति करते हैं; तथा यदि नदी शारीरिक बाह्य मलको दूर करके विश्वको पवित्र करती है तो वह भगवान्की वाणी प्राणियोंके अभ्यन्तर मल ( अज्ञान एवं राग-द्वेष आदि) को दूर करके उन्हें पवित्र करती है। इस प्रकार वह शान्तिनाथ जिनेन्द्रकी वाणी नदीके समान होकर भी उससे उत्कृष्टताको प्राप्त है। कारण कि वह तो केवल प्राणियोंके बाह्य मलको ही दूर कर सकती है, परन्तु वह भगवान्की वाणी उनके अभ्यन्तर मलके भी दूर करती है ॥७॥ तीनों लोकोंके स्वामी जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रके ऊपर लीलासे उठायी गई भुजाओंमें स्थित कंकणके शब्दसे हर्षको प्राप्त हुए देव सदा प्रकाशमान चन्द्रकिरणोंके समूहके समान आकारवाले चंचल चामरोंको ढोरते हैं, तो भी जो इच्छासे रहित है; वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी सदा रक्षा करे ॥८॥ समस्त शास्त्रज्ञानसे वृद्धिंगत बुद्धिवाले इन्द्र भी बहुतसे महान् स्तोत्रों के द्वारा जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्र के गुणसमूहका पार नहीं पा पाते हैं उस भव्य जीवोंरूप कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले ऐसे केवलज्ञानरूप सूर्यसे संयुक्त जिनेन्द्रकी मैंने जो भी स्तुति की है वह केवल भक्तिके वश होकर ही की है। वह पापरूप कालिमासे रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी सदा रक्षा करे ॥ ९॥ इस प्रकार शान्तिनाथ स्तोत्र समाप्त हुआ ॥ १८ ॥
१श वृद्धि।