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१३. ऋषभस्तोत्रम्
727) अलियं कमले कमला कमकमले तुह जिणिंद सा वसई । णहकिरणणिण घडति णयजणे से कडक्खछडा ॥ ४६ ॥ 728) जे कयकुवलयहरिसे तुमम्मि विदेसिणो स ताणं पि ।
दोसो ससिम्मि वा आहयाण जह वाहिआवरणं ॥ ४७ ॥ 729 ) को इह हि उव्वरंतो जिण जयसंहरणमरणवणसिहिणो ।
तुह पयथुइणिज्झरणी वारणमिणमो ण जइ होंति ॥ ४८ ॥ 730 ) करजुवलकमलमउले भालत्थे तुह पुरो कप वस । सग्गापवग्गकमला कुणंति' तं तेण सप्पुरिसा ॥ ४९ ॥
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भो जिनेन्द्र । कमला लक्ष्मीः कमले वसति इति अलीकम् असत्यम् । सा कमला लक्ष्मीः तव क्रमक्रमले वसति, अन्यथा नतजने तस्याः लक्ष्म्याः कटाक्षच्छटाः नखकिरणव्याजेन कथं घडन्ति ॥ ४६ ॥ भो जिन । कृतकुवलय- भूवलयहर्षे त्वयि ये विद्वेषिणः वर्तन्ते स दोषस्तेषां विद्वेषिणाम् अपि अस्ति । यथा शशिनि चन्द्रे धूली' - आहतानां पुरुषाणां तद्धूली आवरणं तेषाम् अपि भवेत् ॥४७॥ भो जिन । हि यतः । इह जगति जगत्संहरणमरणवन शिखिनः अग्नेः सकाशात् कः उद्धरेत् । यदि चेत् । इदं तव पदस्तुतिनिर्झरणीवारि जलं न भविष्यति ॥ ४८ ॥ भो जिन | भालस्थे करयुगलकमलमुकुले स्वर्गापवर्गकमला लक्ष्मीः वसति । किंलक्षणे करकमले । तव पुरतः अग्रे मुकुलीकृते । तेन कारणेन सत्पुरुषाः तत्करकमलं तव अग्रतः कुर्वन्ति ॥ ४९ ॥ भो जिन । तव पुरतः
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आपके नखोंकी किरणों के छलसे उसके नेत्रकटाक्षोंकी कान्ति संगतिको प्राप्त हो सकती है ॥ ४६ ॥ हे जिनेन्द्र ! कुवलय अर्थात् भूमण्डलको हर्षित करनेवाले आपके विषयमें जो विद्वेष रखते हैं वह उनका ही दोष है । जैसे - कुवलय ( कुमुद ) को प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्र के विषय में जो मूर्ख बाहिरी आवरण करते हैं तो वह उनका ही दोष होता है, न कि चन्द्रका | अभिप्राय यह है कि जैसे कोई चन्द्रके प्रकाश (चांदनी) को रोकनेके लिये यदि बाह्य आवरण करता है तो वह उसका ही दोष समझा जाता है, न कि उस चन्द्रका । कारण कि वह तो स्वभावतः प्रकाशक व आल्हादजनक ही है । इसी प्रकार यदि कोई अज्ञानी जीव आपको पा करके भी आत्महित नहीं करता है तो यह उसका ही दोष है, न कि आपका । कारण कि आप तो स्वभावतः सब ही प्राणियोंके हितकारक हैं ॥ ४७ ॥ हे जिन ! यदि आपके चरणोंकी स्तुतिरूप यह नदी रोकनेवाली ( बुझानेवाली ) न होती तो फिर यहां जगत्का संहार करनेवाली मृत्युरूप दावा कौन बच सकता था ? अर्थात् कोई नहीं शेष रह सकता था ॥ ४८ ॥ हे भगवन् ! तुम्हारे आगे नमस्कार करते समय मस्तकके ऊपर स्थित दोनों हाथोंरूप कमलकी कलीमें चूंकि स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मी निवास करती है, इसीलिये सज्जन पुरुष उसे ( दोनों हाथोंको भालस्थ ) किया करते हैं ||४९ || हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे आगे नम्रीभूत हुए सिरसे चूंकि मोहरूप ठगके द्वारा स्थापित की गई मोहनधूलि ( मोहको प्राप्त करानेवाली धूलि ) नाशको प्राप्त हो जाती है, इसीलिये विद्वान् जन शिर झुकाकर आपको नमस्कार किया करते हैं ॥ ५० ॥ हे भगवन् ! जो लोग तुम्हारे ब्रह्मा आदि सब नामोंको दूसरों ( विधाता आदि) के बतलाते हैं वे मूर्ख मानो चन्द्रकी चांदनी को जुगुनूमें जोड़ते हैं ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार जुगुनूका प्रकाश कभी चांदनीके समान नहीं हो सकता है उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश इत्यादि जो आपके सार्थक नाम हैं वे देवस्वरूपसे माने जानेवाले दूसरोंके कभी नहीं हो सकते - वे सब तो आपके ही नाम हैं । यथा
१ क व कुणति २ मा धूलि । ३ तत् धूलि । ४ क कवेन ।