SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [527 : ९-१३एतस्मादपि दुष्करव्रतविधेर्नाद्यापि सिद्धिर्यतो पातालीतरलीकृतं दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम् ॥ १३ ॥ 528 ) झम्पाः कुर्वदितस्ततः परिलसद्बाह्यार्थलाभाइद. नित्यं व्याकुलतां परां गतवतः कार्य विनाप्यात्मनः । प्रामं वासयदिन्द्रियं भवकृतो दूरं सुहृत् कर्मणः क्षेमं तावदिहास्ति कुत्र यमिनो यावन्मनो जीवति ॥ १४ ॥ 529 ) नूनं मृत्युमुपैति यातममलं त्वां शुद्धबोधात्मकं त्वत्तस्तेन बहिर्धमत्यविरतं चेतो विकल्पाकुलम् । स्वामिन् किं क्रियते ऽत्र मोहवशतो मृत्योर्न भीः कस्य तत् सर्वानर्थपरंपराकृदहितो मोहः स मे वार्यताम् ॥ १५॥ तपोवनम् इताः प्राप्ताः। तत्र तपोवने। संशयः उज्झितः त्यक्तः। एतस्मादपि दुष्करव्रतविधेः सकाशात् सिद्धिः अद्यापि न । यतः अदा मानसं भ्राम्यति । कमिव । दलमिव पत्रमिव । किलक्षणं दलम् । वातालीतरलीकृतं वातानाम् आली पतिः तया चचलीकृतम्॥१३॥ इह लोके । यमिनः मुनेः । यावन्मनः यावत्कालं मनः जीवति तावत्कालं क्षेमं कुत्र अस्ति । मनः किं कुर्वत् । इतस्ततः झम्पाः कुर्वत् । पुनः किं कुर्वत् । बाह्य-अर्थलाभात् परिलसत् । पुनः किं कुर्वत् । नित्यं परी व्याकुलतां ददत् । आत्मनः कार्य विनापि । किंलक्षणस्य आत्मनः । गतवतः ज्ञानयुक्तस्य । पुनः इन्द्रियं प्राम वासयद्भवकृतः कर्मणः । दूरम् अतिशयेन । सुहृत् मित्रम् । एवंभूतस्य मुनेः मनः यावत्कालं जीवति तावत्क्षेमं कुत्र । अपि तु न ॥ १४ ॥ हे स्वामिन् । भो श्री-अर्हन् । चेतः मनः । अमलं निर्मलम् । शुद्धबोधात्मकं त्वाम् । यातं प्राप्तम् । नूनं निश्चितम् । मृत्युम् उपैति गच्छति । किंलक्षणं मनः । विकल्पेन आकुलम् । तेन कारणेन । अविरतं निरन्तरम् । त्वत्तः सर्वज्ञतः । लिये हम धन-सम्पत्ति आदिको छोड़कर तपोवनको प्राप्त हुए हैं और उसके विषयमें हमने सब प्रकारके सन्देहको भी छोड़ दिया है। किन्तु इस कठिन व्रतविधानसे भी अभी तक सिद्धि प्राप्त नहीं हुई । इसका कारण यह है कि वायुसमूहके द्वारा चंचल किये गये पत्तेके समान यह मन भ्रमको प्राप्त हो रहा है ।।१३॥ जो मन इधर उधर सपाटा लगाता है, बाह्य पदार्थोके लाभसे हर्षित होता है, विना किसी प्रयोजनके ही निरन्तर ज्ञानमय आत्माको अतिशय व्याकुल करता है, इन्द्रियसमूहको वासित करता है, तथा संसारके कारणीभूत कर्मका परम मित्र है; ऐसा वह मन जब तक जीवित है तब तक यहां संयमीका कल्याण कहांसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥ विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि जब तक मन शान्त नहीं होता तब तक संयमका परिपालन करनेपर भी कभी आत्मका कल्याण नहीं हो सकता है । कारण यह कि मनकी अस्थिरतासे बाह्य इष्टानिष्ट पदार्थोंमें राग-द्वेषकी प्रवृत्ति बनी रहती है, और जब तक राग-द्वेषका परिणमन है तब तक कर्मका बन्ध भी अनिवार्य है। तथा जब तकं नवीन नवीन कर्मका बन्ध होता रहेगा तब तक दुःखमय इस जन्म-मरणरूप संसारकी परम्परा भी चालू ही रहेगी। इस अवस्थामें आत्माको कभी शान्तिका लाभ नहीं हो सकता है । अत एव आत्मकल्याणकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको सर्वप्रथम अपने चंचल मनको वशमें करना चाहिये । मनके वशीभूत हो जानेपर उसके इशारेपर प्रवृत्त होनेवाली इन्द्रियां स्वयमेव वशंगत हो जाती हैं। तब ऐसी अवस्थामें बन्धका अभाव हो जानेसे मोक्ष भी कुछ दूर नहीं रहता ॥ १४ ॥ हे स्वामिन् ! यह चित्त निर्मल एवं शुद्ध चैतन्यस्वरूप आपको प्राप्त होता हुआ निश्चयसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है । इसीलिये वह विकल्पोंसे व्याकुल होता हुआ आपकी ओरसे हटकर निरन्तर बाह्य पदार्थों में १श मुनेः मनः यावत्कालं जीवति। २ क इन्द्रियग्राम ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy