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४. एकत्वसप्ततिः
338) द्वैततो द्वैतमद्वैतादद्वैतं खलु जायते । लोहाल्लोहमयं पात्रं हेस्रो हेममयं यथा ॥ ३१ ॥ 339) निश्चयेन तदेकत्वमद्वैतममृतं परम् । द्वितीयेन कृतं द्वैतं संसृतिर्व्यवहारतः ॥ ३२ ॥ 340 ) बन्धमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मानौ शुभाशुभौ । इति द्वैताश्रिता बुद्धिरसिद्धिरमिधीयते ॥ ३३ ॥ 341 ) उदयोदीरणा सत्ता प्रबन्धः खलु कर्मणः । बोधात्मधाम सर्वेभ्यस्तदेवैकं परं परम् ॥ ३४ ॥ (1842) क्रोधादिकर्मयोगे ऽपि निर्विकारं परं महः । विकारकारिभिर्मेधैर्न विकारि नमो भवेत् ॥ ३५ ॥
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भबन्धात् संवरात्। अद्वैतं मुक्तिः जायते । यथा लोहात् लोहमयं पात्रं भवति । हेम्नः सुवर्णात्। हेममयं सुवर्णमयम् । पात्रं जागते ॥ ३१ ॥ निश्चयेन तत् एकत्वम् अद्वैतम् । परम् उत्कृष्टम् । अमृतम् अस्ति । द्वितीयेन कर्मणा । कृतं द्वैतम् अस्ति । व्यवहारतः संसृतिः संसारः ॥ ३२ ॥ बन्धमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मानौ । शुभाशुभौ पापपुण्यौ । इति द्वैताश्रिता बुद्धिः । असिद्धिः संसारकारिणी । अभिधीयते कथ्यते ॥ ३३ ॥ खलु इति निश्चितम् । उदय उदीरणा सत्ता कर्मणः । प्रबन्धः समूहः । गलत्कर्मफल ]दाने परिणतिः उदयः । अपक्कपाचनम् उदीरणा । सत्ता अस्तित्वम् । तेषां प्रबन्धः । तदेव परं ज्योतिः । सर्वेभ्यः कर्मभ्यः । परं भिन्नम् । एकम् । बोधात्मधाम ज्ञानगृहम् ॥ ३४ ॥ भो मुने । क्रोधादिकर्मयोगेऽपि परं महः निर्विकारं जानीहि । विकारकारिभिः विकारकरर्णैस्वभावैः मेघैः नभः विकारि न भवेत् । पश्चवर्णयुक्तैः मेघैः कृत्वा आकाशद्दव्यं पञ्चवर्णरूपं न क्रियते इत्यर्थः ॥ ३५ ॥
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द्वैत और अद्वैतभावसे अद्वैत उत्पन्न होता है । जैसे लोहेसे लोहेका तथा सुवर्णसे सुवर्णका ही वर्तन उत्पन्न होता है || विशेषार्थ - आत्मा और कर्म तथा बन्ध और मोक्ष इत्यादि प्रकारकी बुद्धि द्वैतबुद्धि कही जाती है। ऐसी बुद्धिसे द्वैतभाव ही बना रहता है, जिससे कि संसारपरिभ्रमण अनिवार्य हो जाता है । किन्तु मैं एक ही हूं, अन्य बाह्य पदार्थ न मेरे हैं और न मै उनका हूं, इस प्रकारकी बुद्धि अद्वैत बुद्धि कहलाती है । इस प्रकारके विचारसे वह अद्वैतभाव सदा जागृत रहता है, जिससे कि अन्तमें मोक्ष मी प्राप्त हो जाता है । इसके लिये यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार लोह धातुसे लोहस्वरूप तथा सुवर्णसे सुवर्णस्वरूप ही पात्र बनता है उसी प्रकार द्वैतबुद्धिसे द्वैतभाव तथा अद्वैतबुद्धिसे अद्वैतभाव ही होता है ॥ ३१ ॥ निश्चयसे जो वह एकत्व है वही अद्वैत है जो कि उत्कृष्ट अमृत अर्थात् मोक्षस्वरूप है । किन्तु दूसरे (कर्म या शरीर आदि) के निमित्तसे जो द्वैतभाव उदित होता है वह व्यवहारकी अपेक्षा रखनेसे संसारका कारण होता है ॥ ३२ ॥ बन्ध और मोक्ष, राग और द्वेष, कर्म और आत्मा, तथा शुभ और अशुभ; इस प्रकारकी बुद्धि द्वैतके आश्रयसे होती है जो संसारका कारण कही जाती है ॥ ३३ ॥ उदय, उदीरणा और सत्त्व यह सब निश्चयसे कर्मका विस्तार है । किन्तु ज्ञानरूप जो आत्माका तेज है वह उन सबसे मिन्न, एक और उत्कृष्ट है ॥ विशेषार्थ-स्थितिके पूर्ण होनेपर निर्जीर्ण होता हुआ कर्म जो फलदानके सन्मुख होता है इसे 'उदय कहा जाता है । उदयकालके प्राप्त न होनेपर भी अपकर्षणके द्वारा जो कर्मनिषेक उदयमें स्थापित कराये जाते हैं, इसे उदीरणा कहते हैं । ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियोंका कर्मस्वरूपसे अवस्थित रहनेको सत्त्व कहा जाता है ॥ ३४ ॥ क्रोधादि कर्मों का संयोग होनेपर भी वह उत्कृष्ट आत्मतेज विकारसे रहित ही होता है । ठीक भी है - विकारको करनेवाले मेघोंसे कभी आकाश विकारयुक्त नहीं होता है ॥ विशेषार्थजिस प्रकार आकाशमें विकारको उत्पन्न करनेवाले मेघोंके रहनेपर भी वह आकाश विकारको प्राप्त नहीं होता, किन्तु स्वभावसे स्वच्छ ही रहता है । उसी प्रकार आत्माके साथ क्रोधादि कमका संयोग रहनेपर भी उससे आत्मामें विकार नहीं उत्पन्न होता, किन्तु वह स्वभावसे निर्विकार ही रहता है ॥ ३५ ॥
१श देतं आश्रिता । २ म श गलत्कर्मकालदान । ३ क कर्मेभ्यः । ४ विकारिकरण, क विकारकारण।