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४. एकत्वसप्ततिः 318) बहिर्विषयसंबन्धः सर्वः सर्वस्य सर्वदा । अतस्तद्भिन्नतन्यबोधयोगौ तु दुर्लभौ ॥११॥
319 ) लब्धिपञ्चकसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः । भव्यः सम्यग्दृगादीनां यः स मुक्तिपथे स्थितः॥१२॥ पुंसः पुरुषस्य । प्रामाण्यतः वाचः प्रामाण्यम्। इष्यते कथ्यते ॥१०॥ बहिर्विषयसंबन्धः बाह्यविषयसंबन्धः सर्वः । सर्वस्य लोकस्य । सर्वदा सदैव वर्तते । अतः बाह्यसंबन्धात् वा अतः करणात् । तद्धिन्नचैतन्यबोधयोगौ तस्मात् बाह्यसंबन्धात् भिन्नौ यौ चैतन्यबोधयोगौ। तु पुनः । दुर्लभौ ॥ ११॥ यः भव्यः लब्धिपञ्चकसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः। पञ्चकसामग्री किम् । खयउवसम्मविसोही देसणपाओग्गकरणलद्धीए। चत्तारि वि सामण्णा करणे सम्मत्तचारितं ॥ एका क्षयोपशमलब्धिः । तस्याः किं लक्षणम् । एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तं श्रावककुलजन्म अनेकवार प्राप्तः सम्यक्त्वेन विना १ । द्वितीया विशुद्धिलब्धिः । तस्याः किं लक्षणम् । दानपूजादिके परिणाम निर्मल अनेक वार भये सम्यग्दर्शन विना २ । तृतीया देशनालब्धिः। तस्याः किं लक्षणम् । गुरुको उपदेश सप्त तत्त्व नव पदार्थ पञ्चास्तिकाय षट् द्रव्य अनेकवार सुणी वखाणी सम्यग्दर्शन विना, अभ्यन्तरकी रुचि विना ३ । चतुर्थी प्रायोग्यलब्धिः । तस्याः किं लक्षणम् । सर्व कर्मनुकी स्थिति एक एक भाग आणि राखी तपके बल कर सम्यग्दर्शन विना पुनरपि सर्व कर्मनुकी सर्वदेशस्थिति बांधी ४। करणलब्धिः पञ्चमी। तस्याः किं लक्षणम् । वह करणलब्धि सम्यग्दृष्टि जीवोंके होती है। करणलब्धेश्च भेदास्त्रयः अधःकरणम् अपूर्वकरणम् अनिवृत्तिकरणं च । अधःकरणं किम् । सम्यक्त्वके परिणाम मिथ्यात्वके परिणाम समान करै । द्वितीयगुणस्थाने । अपूर्वकरणं किम् । सम्यक्त्वके परिणाम अपूर्व चढहि । अनिवृत्तकरणं किम् । सम्यक्त्वके परिणामनिकी निवृत्ति नाहीं दिन दिन चढते जाहि । इस संसारी जीवने विना सम्यक्त्वके चार लब्धि तो अनेकवार पाई। परन्तु पञ्चमी करणलब्धि दुर्लभ है, क्योंकि वह संसारी जीवोंमें सम्यग्दृष्टिको ही होती है। यः भव्यः पञ्चसामग्रीविशेषात्पात्रतां गतः। केषाम् । सम्यग्दृगादीनाम् । स भव्यः मुक्तिपथे स्थितः ॥ १२॥ सम्यग्दृम्बोधचारित्रत्रितयं अल्पज्ञ और राग-द्वेषसे सहित है उसका कहा हुआ धर्म प्रमाण नहीं हो सकता, किन्तु जो पुरुष सर्वज्ञ होनेके साथ ही राग-द्वेषसे रहित भी हो चुका है उसीका कहा हुआ धर्म प्रमाण माना जा सकता है ॥१०॥ सब बाह्य विषयोंका सम्बन्ध सभी प्राणियोंके और वह भी सदा काल ही रहता है। किन्तु उससे भिन्न
चैतन्य और सम्यग्ज्ञानका सम्बन्ध ये दोनों दुर्लभ हैं ॥ ११ ॥ जो भव्य जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण इन पांच लब्धियों रूप विशेष सामग्रीसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयको धारण करनेके योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्गमें स्थित हो गया है। विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिन पांच लब्धियोंके द्वारा होती है उनका स्वरूप इस प्रकार है-१. क्षयोपशमलब्धिजब पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक विशुद्धिके द्वारा प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होते हैं तब क्षयोपशमलब्धि होती है। २. विशुद्धिलब्धि-प्रतिसमय अनन्तगुणी हीनताके क्रमसे उदीरणाको प्राप्त कराये गये अनुभागस्पर्धकोंसे उत्पन्न हुआ जो जीवका परिणाम सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंके बन्धका कारण तथा असातावेदनीय आदि पाप प्रकृतियोंके अबन्धका कारण होता है उसे विशुद्धि कहते हैं । इस विशुद्धिकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है । ३. देशनालब्धि- जीवादि छह द्रव्यों तथा नौ पदार्थोंके उपदेशको देशना कहा जाता है । उस देशनामें लीन हुए आचार्य आदिकी प्राप्तिको तथा उनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थके ग्रहण, धारण एवं विचार करनेकी शक्तिकी प्राप्तिको भी देशनालब्धि कहते हैं। ४. प्रायोग्यलब्धि- सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिको घातकर उसे अन्तःकोड़ाकोडि मात्र स्थितिमें स्थापित करने तथा उक्त सब कोंके उत्कृष्ट अनुभागको घातकर उसे द्विस्थानीय (घातियाकर्मोके लता और दारुरूप तथा अन्य पाप प्रकृतियोंके नीम और कांजीर रूप ) अनुभागमें स्थापित करनेको प्रायोग्यलब्धि कहा जाता है । ५. अधःप्रवृतकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकारके परिणामोंकी १ श पुनः तद्भिन्नचैतन्यवोपयोगी दुर्लभो ।
पद्मनं. १५