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________________ -280:३२८] ३. अनित्यपञ्चाशत् 278) तडिदिव चलमेतत्पुत्रदारादि सर्व किमिति तदभिघाते खिद्यते बुद्धिमद्भिः। स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवानलस्य व्यभिचरति कदाचित्सर्वभावेषु नूनम् ॥ २६ ॥ 279) प्रियजनमृतिशोकः सेव्यमानो ऽतिमात्रं जनयति तदसातं कर्म यचाग्रतोऽपि । प्रसरति शतशाख देहिनि क्षेत्र उत्तं वट इव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयत्नात् ॥ २७ ॥ 280) आयुःक्षतिः प्रतिक्षणमेतन्मुखमन्तकस्य तत्र गताः। सर्वे जनाः किमेकः शोचयत्यन्यं मृतं मूढः ॥२८॥ पुनः । यथा चन्द्रः उदयम् अस्तं पूर्णतां हीनतां लभते । तथा प्राणी उदयम् अस्तं पूर्णता हीनता लभते । च पुनः । यथा चन्द्रः कलुषितहृदयः सन् । राशेः सकाशात् राशि याति । इह संसारे । तथा प्राणी । तनुतः शरीरात् । तनुं शरीरम् । याति। तत्तस्मात् । अत्र संसारे। मुत् का हर्षः कः । च पुनः । शोकः कः । न च शोको न च हर्षः॥ २५॥ भो भव्याः । एतत्पुत्रदारादि सर्वम् । तडिदिव चलं विद्युत् इव चपलम् । इति ज्ञात्वा । तदभिघाते तत्पुत्रादिक अभिघाते सति मृते सति । बुद्धिमद्धिः किं खिद्यते। अपि तु न खिद्यते । नूनं निश्चितम् । सर्वभावेषु पदार्थेषु षद्रव्येषु । स्थितिजननविनाशं कदाचित् नो व्यभिचरति । यथा अनलस्य अग्नेः । उष्णता न व्यभिचरति अग्नेः उष्णता न दूरीभवति ॥ २६॥ प्रियजनमृतिशोकः । अतिमात्रम् अतिशयेन। सेव्यमानः। तत् अत्र असातं कर्म जनयति पापकर्म उत्पादयति । च पुनः । यत्कर्म । अग्रतः अग्रे। देहिनि जीवे । शतशाखं प्रसरति । यथा वटबीजं तनुरपि लधुरपि बीजम् । क्षेत्रे उप्तं वपितम् । शतशाखं प्रसरति । इति मत्वा स शोकः । प्रयत्नात् त्यज्यताम् ॥ २७ ॥ आयुःक्षतिः आयुर्विनाशः । प्रतिक्षणं समय समयं प्रति । एतत् अन्तकस्य यमस्य मुखम् । आकाशमें निरन्तर चक्कर लगाता रहता है उसी प्रकार यह प्राणी सदा संसारमें परिभ्रमण करता रहता है; जिस प्रकार चन्द्रमा उदय, अस्त एवं कलाओंकी हानि-वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी जन्म, मरण एवं सम्पत्तिकी हानि-वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है। जिस प्रकार चन्द्रमा तथा मध्यमें कलुषित (काला) रहता है उसी प्रकार संसारी प्राणीका हृदय भी पापसे कलुषित रहता है, तथा जिस प्रकार चन्द्रमा एक राशि ( मीन-मेष आदि) से दूसरी राशिको प्राप्त होता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण किया करता है । ऐसी अवस्थाके होनेपर सम्पत्ति और विपत्तिकी प्राप्तिमें प्राणीको हर्ष और विषाद क्यों होना चाहिये ? अर्थात् नहीं होना चाहिये ॥२५॥ ये सब पुत्र एवं स्त्री आदि पदार्थ जब बिजलीके समान चंचल अर्थात् क्षणिक हैं तब फिर उनका विनाश होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य खेदखिन्न क्यों होते हैं ? अर्थात् उनके नश्वर स्वभावको जानकर उन्हें खेदखिन्न नहीं होना चाहिये । जिस प्रकार उष्णता अग्निका व्यभिचार नहीं करती, अर्थात् वह सदा अग्निके होनेपर रहती है और उसके अभावमें कभी भी नहीं रहती है; ठीक उसी प्रकारसे स्थिति (ध्रौव्य), उत्पाद और व्यय भी निश्चयसे पदार्थोंके होनेपर अवश्य होते हैं और उनके अभावमें कभी भी नहीं होते हैं ॥ २६ ॥ प्रियजनके मरनेपर जो शोक किया जाता है वह तीव्र असातावेदनीय कर्मको उत्पन्न करता है जो आगे ( भविष्यमें) भी विस्तारको प्राप्त होकर प्राणीके लिये सैकड़ों प्रकारसे दुःख देता है । जैसे-योग्य भूमिमें बोया गया छोटा-सा मी वटका बीज सैकड़ों शाखाओंसे संयुक्त वटवृक्षके रूपमें विस्तारको प्राप्त होता है। अत एव ऐसे अहितकर उस शोकको प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिये ॥२७॥ प्रत्येक क्षणमें जो आयुकी हानि हो रही है, यह यमराजका मुख है। उसमें ( यमराजके मुखमें ) सब ही प्राणी पहुंचते हैं, अर्थात् सभी प्राणियोंका मरण अनिवार्य है। फिर एक प्राणी दूसरे प्राणीके मरनेपर शोक क्यों करता है? अर्थात् जब सभी संसारी प्राणियोंका मरण
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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