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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिगुणातीत अवस्था का बोध ७३ क्योंकि वे सत् संस्कार जो हमने दूसरे के प्रति दया करके, दान करके या किसी की सेवा करके अपने कर्माशेषों में इकट्ठे कर रखे हैं उन्हें भी तो हमें भुगतना ही पड़ेगा। भगवान बुद्ध के चचेरे भाई ने उन्हें मारने के लिए उनके ऊपर पहाड़ के ऊपर से एक शिला खण्ड लुड़का दिया था, लेकिन वह शिलाखण्ड उनके कान के पास से एक जौ भर का फासला बनाते हुए नीचे लुढ़क गया था। जिसके कारण बुद्ध बच गए थे । दूसरी बार उसने भगवान को मारने के लिए एक मदमस्त पागल हाथी को उनकी ओर हाँक दिया था। वह पागल हाथी जब भगवान के सामने, रास्ते के पेड़ों को तोड़ता मरोड़ता हुआ आया तो वहाँ वह अपनी सूड़ को झुकाकर एक दम शान्त हो गया और थोड़ी देर बाद वहाँ से वापिस चला गया। इन दृश्यों को उनके शिष्यों ने भी देखा था। और वे आश्चर्य चकित भी हुए बिना नहीं रह सके थे । इसलिए उन्होंने भगवान के सामने अपनी शंका रखी। "भगवन् यह कौनसी कला है जो हमें आपने अभी तक नहीं बताई है ?" भगवान बोले, "इसमें कला जैसी तो कोई बात नहीं है, अगर कुछ बात है तो वह केवल इतनी सी कि पिछले जन्मों में मेरे द्वारा इस चचेरे भाई के खिलाफ कोई दुष्कर्म हो गया होगा जिसका यह अब बदला ले रहा है, और अब इसके साथ ही पिछले ही जन्मों में कोई सत्कर्म इस पागल हाथी के प्रति मुझसे हुआ होगा इसी कारण से जब वह मेरे सामने आया तो उसकी आँखों के मुझसे मिलते ही, उसे मेरे द्वारा किया गया उसके प्रति वह सत्कर्म याद आ गया होगा, जिसके कारण से ही आज वह मुझे जिन्दा छोड़ गया है । इस पर शिष्यों ने फिर से शंका उठाई "लेकिन भगवान साक्षात मौत को अपने सामने पाकर भी आप विचलित' क्यों नहीं हुए ? हमने देखा था कि आप दोनों ही समय ऐसे अविचलित रहे थे, जैसे आपके समक्ष कुछ हुआ ही नहीं था।" इसके उत्तर में भगवान ने उन्हें फिर कहकर समझाया कि, “यदि मैं उस भाई से अपना बचाव शुरू कर दूं तो जो संस्कार अब समाप्त होने को ही हैं, उनमें फिर से एक नई कड़ी और जुड़ जावेगी । और इसके विपरीत यदि मैं उस हाथी को धन्यवाद दे दू तो वहाँ उसके और मेरे संस्कारों की कड़ियों में भी एक कड़ी और जुड़ जाती है और मैं नहीं चाहता कि मुझे इस जन्म के बाद और भी जन्म लेने पड़ें । हकीकत तो यह है इस जीवन के रहते-रहते मैं अपने तमाम बचे खुचे संस्कारों को यहीं निपटा जाना चाहता हूँ। जब उन सभी को मुझे यहाँ समाप्त For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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