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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ योग और साधना में सोचते हैं जो शत्तियाँ उनके पास हैं, अन्य किसी दूसरे में नहीं हैं। इसलिए मेरा अधिकार है कि मैं उनके द्वारा पूजा जाऊँ या वे मुझे अपना पूज्य स्वीकार करें। मेरे शिष्य बनें, साथ ही मेरी एक ही आवाज पर मरने मारने को तैयार हो जायें । जो मैं कहूँ उसे ही सभी माने तथा मेरे नाम का डंका चारों तरफ बजे । इसमें जो भी बाधा बनकर सामने आए उसे साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाकर अपने रास्ते से हटा दें। अपनी इस राजसी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के उद्देश्य को लेकर इस प्रकार के साधक इस संसार में साम्प्रदायिक दंगे करवाते हैं, तथा अपने आपको धर्म के ठेकेदार समझने लगते हैं । इस प्रकार के स्तर वाले साधक पहले वालों की तरह से तामसी प्रवृत्ति के तो नहीं होते बल्कि राजसी प्रवृत्ति के होते हैं। लेकिन यहाँ भी परेशानी "मैं" की है । "मैं" ही तो है यत्र-तत्र सर्वत्र । यही "मैं" इनके इर्दगिर्द इनके विचारों में घूमता रहता है, इनका सम्पर्क जितना अपने "मैं' के साथ होता है, उतना न तो अपने शिष्यों के साथ होता है, और न ही उसके साथ, जिस का हवाला देकर इन्होंने अपने आस-पास भीड़ इकट्ठी की हुई है। जब तक हम अपनी ही वृत्तियों में लिप्त हैं, तब तक हमारा छुटकारा किस प्रकार से सम्भव हो सकता है । कुछ लोग सोचते हैं कि तामसी और राजसी गुणों से प्रभावित वृत्तियाँ तो छूटनी चाहिए, लेकिन सात्विक प्रवृत्तियों के साथ हम इस साधना में लगे रह सकते हैं इस बात को हमें थोड़ा गहरे में समझना होगा। क्योंकि कुछ लोग सोचते हैं कि हम यदि अच्छे-अच्छे काम करें तो हम मुक्त हो जावेंगे; यह सोचना नितान्त भ्रम ही है। जिसमें हम सोचते हैं कि यदि हम बुरी एवं कुत्सित वृत्तियों से मुक्त हो जावेंगे तो हम संसार से भी मुक्त हो जायेंगे । क्योंकि जब तक किसी प्रकार से भी हमारा सम्बन्ध, हमारे मन में, इस संसार में मौजूद हैं, तब तक सम्बन्धों से मुक्त किस प्रकार हो सकेो ? यह माना कि हमारी किसी से शत्रुता नहीं है लेकिन मित्रता तो है। असल बात तो यह है कि सम्बन्ध का अर्थ होता है बन्धन सहित । तो हम ध्यान रखें हम इस संसार में शत्रु बनकर रहें या मित्र बनकर, सांसारिक सम्बन्धों के बन्धनों में इस बात से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता है। हमारे तमाम बुरे संस्कारों के भुगत जाने के पश्चात भी हमारे अपने अच्छे संस्कार भी तो हमारे खाते में बचते हैं। जिनके कारग से भी हमें इस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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