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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar योग और साधना मूर्ति को चढ़ाते हैं कि परमात्मा हमें परीक्षा में पास करवा देगा और नहीं तो कम से कम दो चार प्रतिशत की बढ़त हमारे अंकों में दिला ही देगा। इस प्रकार की प्रार्थना में हमारा ध्यान परमात्मा पर कम अपने फेल या पास होने पर अधिक रहता है । बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा भूले भटके मूर्ति की तरफ भी झुक जाते हैं । नहीं तो अक्सर अपनी प्रार्थना का सारा समय अपने में ही उलझकर बीत जाता है। जब तक हम अपने में ही उलझे हैं तो यह मार्ग भी हमारी प्रार्थना का सही मार्ग कैसे कहा जा सकता है ? ___ क्या इस परिस्थिति को परमात्मा को प्राप्त करने की प्यास कह सकते हैं ? असल में यह तो प्यास है अपने पास होने की; न कि परमात्मा के क्षेत्र में प्रवेश पाने की। ___ अभी तक हम अपने आपको उसकी प्रार्थना का पात्र तक नहीं बना पाये हैं । अब बड़ी अजीब परेशानी हमारे मस्तिष्क में खड़ी हो जाती है, कि जब हमें अपने जीवन में खड़ी हुई किसी परेशानी का समाधान उसके द्वारा नही हो सकता है फिर क्यों हम उसकी प्रार्थना का बोझ अपने ऊपर उठायें ? इसी शंका को वजह से अनन्य लोगों में प्रार्थना का महत्व समझने को भूल हो जाती है । असल में यह एक उलट फेर सी लगती है। जिस पानी की हमें अभी और इसी वक्त जरूरत है उसे नहीं मांगे बल्कि उससे हम यह प्रार्थना और करें कि हममें प्यास और भी तीब्र तर रूप से जगे। ___मैंने ऊपर तीन प्रकार के साधकों का वर्णन किया है। पहला वह है जो कथा कराता है, दान दक्षिणा देता है, धार्मिक कर्म करता है। दूसरा अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए भगवान को आश्वासन देता है मनौतियाँ मानता है यानि वह अपने वचन से बँधकर प्रार्थना करता है । और तीसरा वह है जो प्रसाद अग्रिम ही चढ़ाता है वह शर्त भी नहीं रखता कि पास करेगा तो ही चढ़ाऊँगा । इसलिए यह साधक अन्य दोनों साधकों में तो ऊंचा है। क्योंकि इसकी श्रद्धा मानसिक रूप से कुछ ज्यादा है लेकिन ये तीनों ही प्रकार की प्रार्थनाएँ हैं सशर्त ही । कहीं न कहीं उनके अपने निजी स्वार्थ उनकी प्रार्थना में जुड़े हुए हैं और जब तक हमारी प्रार्थना हमारे स्वयं से जुड़ी है, हमारे स्वार्थों से जुड़ी है, तब तक परमात्मा से किस प्रकार जुड़ सकती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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