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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar अध्याय ३ "मन से ही प्रेम और मन से ही भक्ति सत्य को अंगीकार करने के पश्चात हमारे मन के सांसारिक मायावी सम्बन्ध जब शुरू-शुरू में टूटने लगते हैं तो मन बड़ा ही क्लांत होता है। लेकिन थोड़े से अन्तराल के बाद ही हम जान जाते हैं कि, यह संसार माया रूपी झूठ पर ही टिका है और इसलिए ही इसमें दुःख ही दुःख हैं। आज हमारे सामने जो दुःख हैं, घे दुःख तो हमारे समक्ष हैं ही, लेकिन जिस सुख को आज हम भोग रहे हैं वह भी भविष्य में अपने पीछे हमारे पास दुःख ही छोड़कर जाने वाला है। यह ठीक है कि आज हमें थोड़ी बहुत परेशानी हो सकती है, क्योंकि यदि हम कीचड़ में रहने लगे तो थोड़े समय पश्चात हमें अपनी उस कीचड़ से भी लगाव हो जाता है। जिसके कारण बाद में उसके बिना भी हमें बड़ी बेचैनी होती है। इस संदर्भ में मुझे दो सहेलियों की आपबीती याद आती है जिनमें एक धंधे से मालिन थी जो रोजाना अपनी बगिया से फूल तोड़कर बाजार में बेचकर अपना गुजारा चलाती थी जबकि दूसरी मछयारिन थी जो अपनी डलिया में मछली भरकर बाजार ले जाती थी और जो कुछ भी उसको उन मछलियों को बेचकर मिलता उससे अपने घर का गुजारा करती थी। ये दोनों कुछ देर रोजाना रास्ते में साथसाथ होती थी। बगीचे से थोड़ा आगे चलकर वह मछयारिन अपनी मछलियां लेने चली जाती थी। इसी प्रकार न जाने कितने सालों से दोनों की मित्रता चली आ रही थी । एक दिन बहुत तेज तूफान आया, आकाश में बड़ी तेज २ हवायें चल रही थी, थोड़ी देर में मूसलाधार वर्षा भी होने लगी । ये दोनों सहेलियां बड़ी मुर्शकल से मालिन के घर तक ही पहुँची । मछयारिन का घर तो और अभी एक मील दूर था रात काफी हो चली थी इसलिये मछयारिन अपनी मालिन सहेली के यहां ही रात को ठहर गई । मालिन ने अपनी सहेगी को खूब अच्छा खाना खिलाया। रात को नरम बिस्तर भी बिछाकर सोने को। या । लेकिन उसकी सहेली को फिर भी नींद नहीं आई। जब काफी रात ऐसे ही करवटें बदलते वदलते निकल गई तब उसने For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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