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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२८ योग और साधना और संस्कार भी है जिसकी वजह से प्रारब्ध भी है और इन सबके साथ पुरुषार्थ भी । कहने का तात्पर्य यह है - इस मत में भी वही पूरी की पूरी व्यवस्था है जो दूसरे में है लेकिन इस आधार भूत व्यवस्था पर एक साकार परमात्मा का आवरण ढका हुआ है । यह हमारे पूर्वजों ने अथवा हमारी संस्कृति के धुरंधर चिन्तकों ने इसमें जोड़ा हुआ सा लगता है, शायद इसका कारण उनकी दृष्टि में यह रहा होगा कि मनुष्य को किसी न किसी के डर से या संस्कृति के रीति-रिवाजों के अन्दर बांधकर रखा जाय, नहीं तो मानव को यदि बिल्कुल खुला छोड़ दिया तो वह दुष्प्रवृत्तियों के प्रभाव में आकर अपना अनिष्ट तो करेगा ही दूसरे सभ्य मानवों को भी शांति से नहीं रहने देगा और मेरे देखते यह बात है भी बड़ी अच्छी लेकिन इस संसार में यहाँ के आदमियों को जितनी भी अच्छी-अच्छी बातें उसे हमारे सिद्धों ने दी, उसने उनके द्वारा वन्दर की तरह अपना सिर ही फोड़ा है । यही कारण है कि आज जितनी दुर्दशा इस मत की हुई है, अन्य किसी मत की नहीं हुई । इस मत के पतन के कुछ एक कारण और भी हैं जिनका उत्तर इसके अनुयायी नहीं दे पाते हैं -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. जब वह नर्क के द्वारा हमें हमारे किये की सजा दे चुका तो फिर यह दुनियाँ भी दुखों का सागर क्यों ? २. कुछ लोग इतने बुरे होते हैं जो दूसरों को दुखी देखकर आनन्दित होते हैं। क्या इसी प्रकार परमात्मा इतना बुरा है जो हमें दुख देकर आप आनन्द में रहता है अथवा हमें सुख में देखकर हमारे सुख का चुपके चुपके स्वयं वह आनन्द उठाता है ? ३. उसको क्या आवश्यकता आ पड़ी इस सृष्टि के निर्माण की ? अथवा वह कौन सा कार्य अप्रत्यक्ष रूप से हमारे द्वारा हमसे करा रहा है ? वह कार्य कभी पूरा भी होगा ? जब वह स्वयं इतना समर्थ है कि हमारे द्वारा कार्य करते हुये भी वह स्वयं ही कर रहा है तब उसे क्या जरूरत पड़ी हमें पैदा करने की ? वह स्वयं ही कर लेता उस तथा कथित कार्य को । ४. यदि हम यह मानें कि ज्ञान का मार्ग भी वह ही दिखा रहा है जिसमें साधक भी स्वयं परमात्मा ही हो जाता है तब क्या वह इस सृष्टि के द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी पैदा कर रहा है ? For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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