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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org योग और साधना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ अथवा अपने बीज से भी अलग आत्म-स्वरूप हो जाते हैं इसी अवस्था को हम निर्बीजस्य या असमप्रज्ञात समाधि कहते हैं । यह हमारा आत्मस्वरूप है लेकिन हमारी आत्मा नहीं क्योंकि अभी भी आत्मा अपने ऊपर पड़े हुये बिना भोगे हुये कर्माशिषों से प्रभावित है। इसलिए जब तक वह इन के भार से मुक्त नहीं हो जाती तब तक उस उच्च अवस्था को प्राप्त करके भी हम इनके द्वारा फिर से इसी जगत में खींच लिए जाते हैं । समप्रज्ञात समाधि तक सभी साधक राजयोग के द्वारा थोड़े बहुत अन्तराल के बाद करीब करीब एक जैसे अनुभव करने लगते हैं । लेकिन यहाँ आकर सबकी साधना एक दम से व्यक्तिगत हो जाती हैं क्योंकि प्रत्येक मानव के इस दुनियाँ में अपने-अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग भोग भोगने को बचे हुए होते हैं जब तक वे सारे के सारे समूल नष्ट नहीं हो जाते तब तक हम असमप्रज्ञात समाधि की अवस्था के आ जाने के पश्चात भी उस चैतन्य अवस्था में ज्यादा देर तक नहीं ठहर पाते हैं । जिसमें सबसे ज्यादा और सबसे पहले हमारे मन में हमारे देह के प्रति देहाशक्ति ही बाधक बनती है। जिसकी वजह से साधक बार-बार उस परम आनन्द एवं चेतना की सच्ची और अन्तिम अवस्था में पहुँच कर भी लौट आता है जिसके बाद उसका शरीर फिर से सामान्य दिखाई देने लगता है और ऐसा सम्भव है भी क्योंकि समाधि हमारी स्वयं की ही वह साधी हुयी अवस्था है जिसमें हम इस शरीर के बाहर कदम रखते हैं। सुषमणा नाड़ी को आधार बनाकर जब कि मृत्यु के समय हमें शरीर के बाहर निकलना पड़ता है इड़ा और पिघला नाडियों पर आधारित केन्द्रों के मार्ग द्वारा । समाधि और मृत्यु में यही एक सैद्धान्तिक अन्तर है । जिसकी वजह से समाधि की अवस्था में हम शरीर के बाहर जाकर भी लौट आते हैं जबकि मृत्यु के बाद हमारे शरीर के बाहर निकलते ही लौटने का मार्ग समाप्त हो जाता है। सूक्ष्म यदि सूक्ष्म रास्ते से ही निकलें तो कुछ भी बिगड़ाव नहीं आता लेकिन, यदि सूक्ष्म स्थूल रास्तों से जायेगा तो निश्चित रूप से उसके बाद स्थिति में परिवर्तन आ ही जावेगा। और वह परम निर्वात जिसकी वजह से आकाशी तत्व इस शरीर में खिंचकर आता है frखण्डित हो जाता है । इस शरीर के पाँच तत्वों में से एक तत्व आकाशी तत्व के बाहर हो जाने की वजह से शरीर का कम्पोजीशन टूट जाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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