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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाज्ञात के चार भेदों के बाद असमप्रज्ञात की झलक २१७ दिखाई पड़ता है। अगर प्राण नहीं रहें तो वह बीज स्वरूप ही पड़ा रहेगा अनन्य युगों तक इस प्रकृति में इसलिये मुख्य चीज प्राण नहीं है बल्कि मुख्य लो वह बीज है जो कि प्राणों के सहारे से अंकुरित होता है । प्राण तो इस प्रकृत्ति से मिलते हैं बीज को । प्राणों का भी स्वरूप स्थूल ही है जब कि वह बीज या हमारी अस्मिता जो भी नाम हम उसे अपनी भाषा में दें उसका ही स्वरूप सूक्ष्म है बाकी उससे पहिले जितने भी स्वरूप हमने जाने हैं, कम और ज्यादा, स्थूल ही हैं । जैसे एक रेखा जिसका कि नाम "अ" "ब" है और उसका "अ" किनारा सूक्ष्म है और "ब' स्थूल रूप । “अ' से "ब" तक ही सारी की सारी व्यवस्थायें इस प्रकृति की हैं । "अ" यदि हमारी अस्मिता का स्त्रोत है तो "" विकसित हुये हाड़-मांस के शरीर का भौतिक स्वरूप। इस प्रकार वितर्क, विचार एवं आनन्द की अनुभूतियों को जान लेने के पश्चात् समप्रज्ञात की चौथी एवं आखिरी कड़ी हम अपनी अस्मिता की अनुभूति को जान जाते हैं । इसी कारण से इस अवस्था में इसका नाम अस्मितानुगत समाधि कहा गया है। कहने का तात्पर्य है कि राजयोग की इस प्रक्रिया में जिसमें कुण्डलिनि शक्ति को इडा-पिघला से निकालकर सुषमणा में पहुँचाते हैं, इस साधन के द्वारा ही हम जानते हैं अपने स्वयं की शक्ति के स्त्रोत को जिसे हम अपनी प्रज्ञा कहते हैं । यहां एक बात और बड़े ध्यान रखने की है कि जब तक हमारी अपनी प्रज्ञा मौजूद है, हमारा अलग अस्तित्व भी मौजूद रहता है एक वूद के समान, उस महासागर से अलग और चूकि इस प्रकृति के महास्त्रोत से हम अलग हैं तब तक हम अधुरे ही रहेंगे, हमारी सीमायें रहेंगी, जिसकी वजह से हम असीमित नहीं हो सकते और जब तक हम सीमित हैं तब तक हमारी स्थिति प्रज्ञा में समाहित अथवा समप्रज्ञात की ही स्थिति कहलाती है। - इसके बाद जब हम अपने सूक्ष्म शरीर में अपनी साधना को और आगे बढ़ाते हैं तब हम अपनी प्रज्ञा को तोड़ने में सफल होते हैं तब ही हम प्रज्ञा में सम्म. लित होकर नहीं रहते बल्कि प्रज्ञा से भी अलग यानि अपने प्राण, अस्मिता, प्रज्ञा For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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