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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० योग और साधना प्राचार की स्थिति, लगातार जपने से पहुई अषा की स्थिति के बाद भी यही स्मित आ सकती है। मतलब यह कि होश. पूर्वक कोई भी आन्तरिक मानसिक किस जिसमें मस्तिष्क थक कर असफल हो जाता है इस क्रिया को घटने का र न सकती है लेकिन किसी भी जिया को अपने लिए निश्वित् करते समय भागको अपनी क्षमता का ख्याल अवश्य कर लेना चाहिए। में अपने अनुभव से केवल इतना ही कह सकता हूँ कि जाते जाते स्वांस पर ध्यान देकर जो क्रिण हमारे सामने है यही एक अकेली क्रिया है जिसमें हम अपने शरीर को सुरक्षित रखते हुए निरापद रूप से हम ध्यान को उपलब्ध होते हैं।क्ति पालिनी शिया को अपने साधन के रूप में अपनाने वाले कई एक सामसे मेरा साक्षात् हुआ है जिन्हें अनुभव तो कुछ हुमा नहीं बल्कि अपने पेडों में हमेशा के लिए नुकसान और कर ठे। लोग योग के सिद्धान्त को ठीक से समझे बिना ही कार्य शुरू कर देते हैं जिस कारण से उन्हें नुकसान उठाना पहला है । यह ठीक है कि भगवत श्रद्धा से किया गया कोई भी कार्य अन्तत्तः मायन, वन ही जाता है लेकिन हमें या गृहस्थियों को वह मार्ग चुनना चाहिए जो कि सर्वधा निरापद हो । __मैं एक बार फिर से इस साधना के सिद्धान्त को आपके सामने रखता हूँ। जिसकी चंचलता को वश में करने के लिए ही हम साधना करते हैं जिसमें पहले हम अपने मन को बहिमुखी से अंर्तमुख करते हैं । उसके बाद इसकी मार्ग को पायदानों में अपने ध्यान को अपने मन से भी हटाकर अपने प्राणों से भी और आगे हम अपनी चेतना पर ले जाते हैं । इस अवस्था में आकर ही हम अपनी मन या वित्त की वृतियों को अपने मन से अनुपस्थित पामें हैं। इसको ही महर्षि पतंजलि "योग चितवृति निरोध:"कहते हैं। में यह अच्छी तरह जानता है कि मैं इस विषय को कितना भी खुलासा करने के लिए लिखू फिर भी मेरे मन में जितनी बातें हैं वे ही नहीं लिखी जा सकती हैं, जबकि इस संसार में तो जितने मन हैं उतनी ही बातें हैं। सारे के सारे संसार के कागज पर भी यदि उन तमाम मनों के लिए सही उपयुक्त पवस्था, For Private And Personal Use Only
SR No.020951
Book TitleYog aur Sadhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamdev Khandelval
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1986
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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